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३ यक्ष उवाच- धन्यानामुत्तमं किंस्विद्धनानां स्यास्किमुत्तमम् । लामानामुत्तमं किं स्यात्सुखानां स्याकिमुत्तमम् ॥ युधिष्ठिर उवाच- धन्यानामुत्तमं दाभ्यं धनानामुत्तमं श्रतम् । लामानां श्रेय आरोग्यं सुखानां तृप्तिरुत्तमा । पुनरपि- 'धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः" इत्यादि अत्यन्त सुन्दर और अमूल्य भाव हैं । मैं इस विषय को अब बढ़ाना नहीं चाहता । पुस्तक पाठकों के सामने है । वे इसका गुण स्वयं देख लेंगे- तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्वपक्किहतवः । हेनः संलक्ष्यते रानौ विशुद्धिः श्यामिकाऽपि वा ॥ मैं मिस्टर ए. सी. वुलनर एम. ए., सी.आई.ई., एफ. ए. एस. बी., प्रिन्सीपल ओरियण्टल कौलेज लाहौर और वाईस-चान्सलर पाव युनिवर्सीटी का अत्यन्त अनुगृहीत हूं जिन्हों ने कि कई एक अत्यन्त गुणकारी मन्त्रणाएं दी । मैं महामहोपाध्याय पंडित गणेशदत्त जी शास्त्री का भी अत्यन्त अनुगृहीत हूं जिन्हों ने मुझे इस संग्रह में विशेष सहायता दी है । मैं पं० परमेश्वरानन्द जी, पं० हीरानन्द जी, और पं० मोहन देव जी का भी विशेष कृतज्ञ हूं। अन्त में मैं विद्यार्थियों को यह बताना चाहता हूं कि यह भूमिका उन के लिए ही हिन्दी में लिखी है यह देखा है कि प्रायः विद्यार्थी भूमिका नहीं पढ़ते । अत एव इनका इधर ध्यानाकर्षण करने के लिए यह भूमिका हिन्दी में लिखी गई है। आशा है कि पाठकगण अब विशेष लाभ उठाएंगे । इस भूमिका के दृष्टिगोचर होने से इन्हें यह ज्ञात होगा कि प्रत्येक विषय में क्या क्या विशेषताएं हैं और उनसे हम क्या क्या शिक्षाएं ग्रहण कर सकते हैं। अब हम पाठकों से क्षमा मांगते हैं। स्वधर्मपती के रोगग्रस्त होने के कारण जल-वायु परिवर्तन कराने के लिए उन्हें बाहर भेज दिया गया था। पुस्तक इस लिए शीघ्र मुद्रण की गई थी कि मैं भी वहां जा सकू । प्रफ-संशोधन में विशेष ध्यान रखा गया था । सम्भव है कि कुछ अशुद्धिएं रह गई हो । पाठकगण क्षमा करेंगे। पुस्तक की छपाई व पत्रादि का प्रबन्ध उच्च- श्रेणी का किया गया है। पाठकगण स्वयं निरीक्षण कर लेंगे। लाहौर १२-१०-२६ } कैलाशनाथ एम. ए. तब भी