पृष्ठम्:रुद्राष्टाध्यायी (IA in.ernet.dli.2015.345690).pdf/९६

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

ऽध्यायः ५. ] भाष्यसहिता | (८७ माध्यम् - (रुद्रस्य) शिवस्प ( हतिः ) आयुधम् ( नः ) अस्मान् ( परिवणक् परिवर्तयतु ( त्वेषस्य ) क्रुद्धस्य (अघायो ) पापशीलस्प ( दुर्मतिः ) दुष्टा मतिद्रह- चामा (परि ) परिवृणक् ( मी ) सेक्तः ( मधवृद्भ्यः ) मघं हविलक्षणं धनं विद्यते येषां ते यजमानास्तदर्थः यजमानानां भयनिवृत्तये ( स्थिरा) स्थिराणि दृढान्दि धषि ( व्यवतनुष्य ) अवतारय ज्यारहितानि कुस किञ्च ( तोकाय) पुत्राय ( तन- याय) पौत्राय (मृड) सुखय ॥ ५० ॥ भाषार्थ-रुद्रके सपूर्ण आयुध हमको परित्याग करें । पापियोंपर क्रोधित अर्थात कोप- भाव दण्ड देनेकी इच्छावाली दुमत हमको सब प्रकार श्याग करें । हे आमलात फल प्रद हविरूप धन से युक्त यजमानीके भय दूर करनेको दृढ धनुषको ज्याहीन करो, हमारे पुत्र पौत्रादिको सुख दो ॥ ५० ॥ मन्त्रः ।

भोदु॑ष्टम॒शिव॑तमशि॒वोन॑ सु॒मना॑भव ॥ पुर- मेहक्षऽआयु॑षन्निघायुकृतिवसांनऽआचर पिनकुम्बदा हि ॥ ५ 11 ॐ मीढुष्टम इत्यस्य परमेष्ठी प्रजापतिर्देवा ऋ० | निच्याष यव- मध्या त्रिष्टुप | रुद्रो देवता | वि० पू० ॥ ५१ ॥ भाग्यम् - ( मी दुष्टम) सेकृतम ( शिवतम ) हे अत्यन्तं कल्याणकर्तः "( नः व्यस्माकम् ( शिवः ) शान्तः ( सुमनाः ) हृष्टचित्तः (भव ) भवतु ( परमे ) दूरस्ये उन्नते वा (वृक्षे ) वटादी (आयुधम् ) त्रिशूलादिकं ( निधाय ) संस्थाप्य ( कृति - वसानः ) चर्म परिदद्वानः सन् ( आचर) आगच्छ तपश्चरेति वा ( पिनाकम् > धनु: (विभ्रत्) (आगहि ) आगच्छ ज्याशरहीनं धनुर्मात्रं शोभार्थ धारयन्नागच्छे- त्यर्थः ॥ ५१ ॥ J भापार्य–३ भतिशय फलप्रदाता ! हे अत्यन्त वल्माणकर्ता | हमको शान्त सुन्दरमनवाले हो दूरस्थित वा ऊंच वृक्षपर अपना त्रिशूल रखकर मृगचर्म धारण किये आगमन कीजिये वा तप कीजिये, पिनाक धनुपको धारण किये आगमन करो अर्थात् ज्या और चाणोंसे होन्न धनुष शोमाके निमित्त चारण किये भाइये ॥ ५१ ॥ 4 मावार्य - भाव यह कि, ससाररूपी वृक्षपर पापोंके सहारकी शक्तिको फैलाकर कार्यकारिणे, शक्ति से वश कर हमारी रक्षा करो, इस मत्रका तात्पर्य बडा गूढ है, इसमें संसारियोंके निमित्त शस्त्र है, मुमुक्षुओंके निमित्त अभय है इत्यादि तपस्वी महात्माओंके जानते योग्य है ॥ ५१ ॥