पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०००

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शततमोऽध्यायः ६७६ ॥१३० ॥१३१ ॥१३२ "संहृत्य तांस्तता ब्रह्मा देवर्षिपितृदानवान् । संस्थापयति वै सर्ग सहन्दृष्टवा युगक्षये चतुर्युगसहस्रान्तमर्यद्ब्रह्मणो विदुः । ÷ रात्रि युगसहस्रान्तामहोरात्रविदो जनाः नैमित्तिकः प्राकृतिको यश्चैवाऽऽत्यन्तिकोऽर्थतः । त्रिविधः सर्वभूतानामित्येष प्रतिसंचरः 'ब्राह्मो नैमित्तिकस्तस्य कल्पदाहः प्रसंयमः । प्रतिसर्गे तु भूतानां प्राकृतः करणक्षयः ज्ञानाच्चाऽऽत्यन्तिकः प्रोक्तः कारणानामसंभवः । ततः संहृत्य तान्ब्रह्मा देवांस्त्रैलोक्यवासिनः ||१३४ अहरन्ते प्रकुरुते सर्वस्य प्रलयं पुनः । सुषुप्सुभंगवान्ब्रह्मा प्रजाः संहरते तदा ॥१३३ ॥१३५ ॥१३६ ॥१३७ ततो युगसहस्रान्ते संप्राप्ते च युगक्षये । तत्राऽऽत्मस्थाः प्रजाः कर्तु प्रपेदे स प्रजापतिः तदा भवत्यनावृष्टिस्तदा सा शतवार्षिको। तथा यान्यल्पसाराणि सत्त्वानि पृथिवीतले तान्येवात्र प्रलोयन्ते भूमित्वमुपयान्ति च । सप्तरश्मिरथो भूत्वा उदतिष्ठद्विभावसुः असारश्मिभंगवान्पिबन्नम्भो गभस्तिभिः | हरिता रश्मयस्तस्य दोप्यमानास्तु सप्तभिः ॥१३८ ॥१३६ जाते हैं, उस समय ब्रह्मा देवताओं, ऋषियों, पितरों, दानवों— सब का संहार कर युगक्षय पर महतो वृष्टि के द्वारा सृष्टि को पुनः स्थापना करते हैं | १२८-१३०। एक सहस्र चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन बतलाया जाता है और इसी प्रकार एक सहस्र चतुर्युग को उनकी रात्रि, दिन रात्रि के नाम को जानने वाले ज्योतिषी लोग जानते हैं । नैमित्तिक, प्राकृतिक एवं मात्यन्तिक - जीवों के ये तीन प्रकार के प्रलय वतलाये जाते हैं, अर्थानुसार इनकी चरितार्थता होती है। इनमें ब्रह्मा द्वारा किया गया कल्पदाह प्रसंयम और नैमित्तिक है । जिन प्रलय में भूतों के कारणों ( असाधारण कारणों ) का क्षय हो जाता है उसको प्राकृतिक प्रलय कहते हैं |१३१-१३३| अच्छी तरह जान बूझकर किये गये उस महान् प्रलय को, जिसके बाद कारणीभूत उपादानों का अस्तित्व एक दम नष्ट हो जाता है, वे असम्भव हो जाते हैं, आत्यन्तिक प्रलय कहते हैं । त्रैलोक्य- वासो उन देवताओं का संहार करने के उपरान्त अपने एक दिन के बाद पुनः सृष्टि का प्रलय करते हैं । उस समय शयन करने की इच्छा से भगवान् ब्रह्मा प्रजाओं का संहार करते हैं। इस प्रकार एक सहस्र युग के व्यतीत हो जाने के उपरान्त युगक्षय के प्राप्त होने पर प्रजापति आत्मस्थ समस्त प्रजाओं का विस्तार करने में प्रवृत्त होते हैं ।१३४ - १३६। उस समय सौ वर्ष व्यापी घोर अनावृष्टि होती है, जिससे पृथ्वीतल में जो अल्पसार प्राणी शेष रह जाते हैं, वे भी विनष्ट होकर पृथ्वी रूप में परिणत हो जाते हैं । विभावसु सात विशिष्ट रश्मियों से समन्वित होकर उदित होते हैं, और अपनी तीक्ष्ण रश्मियों से जलराशि का शोषण करते हैं । उस समय उनकी रश्मियों का तेज असह्य हो जाता है । वे रश्मियाँ हरित वर्ण की एवं परम तेजोमयी होती हैं, उनका सात भाग होता है | १३७-१३६ | वे शनैः ÷ इत आरभ्य प्रतिसंचर इत्यन्तग्रन्थो ङ. पुस्तके नास्ति ।