पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१००३

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६५२ वायुपुराणम् भूलोकं तु भुवर्लोकं स्वर्लोकं च महस्तथा । घोरो दहति फालाग्निरेवं लोकचतुष्टयम् व्याप्तेषु तेषु लोकेषु तिर्यगूर्ध्वमथाग्निना | तत्तेजः समनुप्राप्तं कृत्स्नं जगदिदं शनैः । अयोगुडनिभं सर्वं तदा ह्येवं प्रकाशते ॥१६० ॥१६१ ॥१६२ ॥१६३ ततो गजगुलाकारास्तडिद्भिः समलंकृताः | उत्तिष्ठन्ति तदा घोरा व्योम्नि संवर्तका घनाः केचिन्नीलोत्पलश्यामा केचित्कुमुदसंनिभाः । केचिद्वैदूर्यसंफाशा इन्द्रनीलनिभाः परे शङ्खकुन्दनिभाश्चान्ये जात्यञ्जननिभास्तथा । धूम्रवर्णा घनाः केचित्केचित्पीताः पयोधराः ॥१६४ केचिद्रासभवर्णाभा लाक्षारक्तनिभास्तथा । मनःशिलाभात्त्वपरे कपोताभास्तथाऽम्बुदाः इन्द्रगोपनिभाः केचिदुत्तिष्ठन्ति धना दिवि । ("केचित्पुरधराफाराः केचिद्गजकुलोपमाः केचित्पर्वतसंकाशाः केचित्स्थलनिभा घनाः) | फुण्डागारनिभाः केचित्केचित्मीनकुलोपमाः बहुरूपा घोररूपा घोरस्वरनिनादिनः । तदा जलधराः सर्वे पूरयन्ति नभःस्थलम् ततस्ते जलदा घोरा राविणो भास्करात्मिकाः । सप्तधा संवृतात्मानस्तमग्न शमयन्त्युत ॥१६५ ॥१६६ ॥१६७ ॥१६८ ॥१६६ इन चारों लोकों को सर्वांशतः भस्मावशेष कर देती है | नीचे ऊपर सबै अग्नि में परिव्याप्त होकर धीरे-धीरे यह समस्त जगन्मण्डल तेजोमय होकर एक तपाये हुए तोहे के पिण्ड की भाँति प्रकाशमान होता है। उसके बाद हाथियों के समूहों के समान आकार घाले, विद्युतों से सुप्रकाशित संवर्तक नामक मेघगण घोररूप धारण कर आकांश मण्डल में उठ पड़ते है |१६०-१६२। उनमें कुछ नौचे कमल के समान श्यामल वर्ण के, कुछ कुमुदिनो के समान श्वेतवर्णं के, कुछ वैदर्भ मणि के समान, कुछ इन्द्रनील के समान, कुछ कुन्द और दांस के समान अतिशय श्वेत, कुछ काजल के समान काले, कुछ धुएँ के समान अतिनय काले, कुछ पोते, कुछ गधे के समान धूसरित रंगवाले, कुछ लाल के समान रक्तवर्ण वाले कुछ मैनशिल के समान और कुछ कबूतरों के समान वर्णं वाले रहते हैं । १६३ १६५। यही नहीं, कुछ इन्द्रगोप (एक वरसाती कोड़ा जो लाल रंग का होता है।) के समान अतिशय रक्त वर्ण के मेघ गाकाश मण्डल में दिखाई पड़ते हैं। कुछ ग्रामों एवं पृथ्वी सण्ड के समान भोपण, कुछ हाथियों को पंक्ति के समान विशाल, कुछ पर्वतों के समान विशाल, कुछ पर्वतों के समान भीषण, कुछ चट्टानों की तरह विस्तृत मेघ भी होते हैं। कुछ को माकृति चुण्डों की तरह गहरी दिसाई पड़ती है, कुछ मछलियों के समूहों से व्याप्त दिखाई पठते हैं | १६६-१६७। इस प्रकार अनेक रूप धारण कर कठोर कर्कश गर्जन करने वाले वे मेघगण सारे आकाअ मण्डल को व्याप्त कर लेते । सूर्यात्मक वे मेघगण धोर गर्जन करते हुए सात भागों में विभक्त होकर उस अग्नि को शान्त करने लगते हैं। बड़े वेग से जल-राशि वरसाते हुए ये

  • धनुश्चिह्नान्तनंतग्रन्थो ग. पुस्तके नास्ति ।