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शततमोऽध्यायः

  • निष्क्रमन्ते विशन्ते च प्रजाकारं प्रजापतिस् । ब्रह्माणं सर्वभूतानि सहायोगं महेश्वरम्

सस्रष्टा सर्वभूतानां कल्पादिषु पुनः पुनः । व्यक्ताव्यक्ती महादेवस्तस्य सर्वसिदं जगत् येनैव सृष्टा प्रथमं प्रयाता आपो हि मार्गेण महीतलेऽस्मिन् । पूर्वप्रयातेन तथा हापोऽन्यास्तेनैव तेनैव तु संव्रजन्ति यथा शुभेन त्वशुभेन चैव तत्रैव तत्रैव विवर्तमानाः । मर्त्यास्तु देहान्तरभावितत्वाद्रयेवंशादूर्ध्वमधश्चरन्ति ये चापि देवा मनवः प्रजेशा अन्येऽपि ये स्वर्गगताश्च सिद्धाः । ६८७ ॥२०६ ॥२०७ ॥२०८

  • अत्राऽऽत्मनेपदमार्षम् ।
अत्राध्यायसमाप्तिः ख. पुस्तके | अनन्तरं सूत उवाचेति च ।

॥२०६ तद्भाविताख्यातिवशाच्च धर्म्याः पुननिसर्गेण भवन्ति सत्त्वा:: ॥२१० अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि कालमाभूतसंप्लवम् | मन्वन्तराणि यानि स्युर्व्याख्यातानि मया द्विजाः ॥ सह प्रजानिसर्गेण सह देवश्चतुर्दश स. युगाण्यासहस्रं तु सर्वाण्येवान्तराणि वै । अस्याः सहस्रे द्वे पूर्णे निःशेषः कल्प उच्यते ॥२११ ॥२१२ शरीर में प्रवेश करते हैं और उसी से पुनः बाहर निकलते हैं | २०२-२०६। प्रत्येक कल्प के आदिमकाल में व्यक्त एवं अव्यक्त उभय विष उपाधिधारी देवाधिदेव भगवान् ब्रह्मा ही समस्त जीव समूह की सृष्टि करते हैं इस चरा- चर जगत में जो कुछ भी हैं, वह उन्हीं का बनाया हुआ इस महीतल में प्रथम प्रवर्तित जल राशि जिस मार्ग का आश्रय लेकर प्रयाण करती है, अन्यान्य जल राशियों भी उसी पूर्व प्रथित पथ पर प्रयाण करती हैं। मनुष्य गण, दूसरे शरीर को भवितव्यता ( आवश्यक प्राप्ति ) के कारण एवं रविरश्मियों के वशीभूत होकर, अपने-अपने शुभाशुभ कार्यकलापो के अधीन उसी कर्म के निर्दिष्ट पथ पर विचरण करते हुए ऊर्ध्वं अथवा निम्न लोकों में गमन करते हैं। जो देवगण मनुगण, प्रजापति एवं अन्याय स्वर्गस्थ सिद्धिप्राप्त पुरुष हैं, वे भी भवितव्यता वश अपने अपने धर्म की मर्यादा के अनुरूप स्वभावतः जन्म धारण करते हैं । २०७-२१०॥ ऋपिवृन्द ! अव इसके उपरान्त मैं प्रलय काल के विषय में बतला रहा हूँ | जो चौदह मन्वन्तर होते हैं, उनको बतला चुका । साथ मे ही उनमें होनेवाली प्रजाओं को सृष्टि भी देवताओं के साथ वतला चुका हूँ | वे सभी मन्वन्तर एक सहस्र युगों के होते है। इसी प्रकार दो सहस्र युगों के व्यतीत होने पर एक कल्प की समाप्ति होती कही जाती है |२११-२१२। इस अवधि को ब्रह्मा का एक दिन समझना चाहिये । उसकी संख्या