पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०११

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वायुपुराणम् विनिवृत्ते च संहारे उपशान्ते प्रजापतौ । निरालोके प्रदग्धे तु नैशेन तमसाऽऽवृते ॥ ईश्वराधिष्ठिते हास्मिस्तदा होकादे किल तावदेकार्णवो ज्ञेयो यावदासीदहः प्रभोः । रात्रिस्तु सलिलावस्था निवृत्तौ चाप्यहः स्मृतम् अहोरात्रस्तथैवास्य कमेण परिवर्तते । आसूतसंप्लयो ह्येष अहोरात्रः स्मृतः प्रभोः त्रैलोक्ये यानि सत्त्वानि गतिसन्ति ध्रुवाणि च । आसूतेभ्य: प्रलीयन्ते तस्मादाभूतसंप्लव:

  • अग्रे भूतः प्रजानां तु तस्माद्भूतः प्रजापतिः | आभूतात्प्लवते चैव तस्मादाभूतसंप्लवः

शाश्वते चामृतत्वे च शव्दे चाऽऽसूतसंप्लवः । अतीता वर्तमानाश्च तथैवानागताः प्रजाः ॥ दिव्यसंख्या प्रसंख्याता अपरार्धगुणीकृता परार्धद्विगुणं चापि परमायुः प्रकीर्तितम् । एतावास्थितिकालस्तु अजस्येह प्रजापतेः ॥ स्थित्यन्ते प्रतिसर्गस्य ब्रह्मणः परमेष्ठिनः यथा वायुप्रवेगेन दोपचिरुपशाम्यति । तथैन प्रतिसर्गेण ब्रह्मा समुपशाम्यति ॥२३५ ॥२३६ ॥२३७ ॥२३८ ||२३६ ॥२४० ॥२४१ ॥२४२ कर प्रजापति शांत हो जाते हैं, दग्ध लोक समूहों में आलोक ( प्रकाश ) का सर्वथा अभाव हो जाता है. घोर नेश अंधकार में संसार सभी ओर से आवृत हो जाता है। ईश्वर में अधिष्ठित गृह समस्त जगत् एक महासमुद्र रूप में परिणत हो जाता है । तव तक भगवान् का एक दिन रहता है तब तक एकार्णव रूप जगत् की स्थिति जाननी चाहिये, उसके बाद उनको रात्रि केवल जलावस्था तक रहती है । इसके उपरान्त दिन कहा जाता है । ये दिन और कम से परिवर्तित होते हैं । इस प्रकार उन परम ऐश्वर्यशालो का एक दिन रात निखिल प्राणि समूहों के प्रलय अवधि तक कहा जाता है |२३५-२३८। इस समस्त त्रैलोक्य में जितने भी चराचर भूत ( जीव ) समूह हैं, सव के सब विनष्ट हो जाते हैं, इसीलिये प्रलय का नाम आभूत- संप्लव कहा जाता है। प्रजाओं मे सय में प्रथम भूत ( उत्पन्न ) हुए थे, अतः प्रजापति भूत हैं, उन्ही से सब चराचर जगत् भूत ( विनाश ) होता है, इसलिये भी प्रलय को आभूतसंप्लव कहते हैं । शाश्वत एवं अमृतत्व शब्द भी इस आभूतसंप्लव शब्द के अर्थ में प्रयुक्त होने है । अतीत, भविष्य एवं वर्तमान प्रजाओ का त्रैकालिक आयु परिमाण दिव्य संख्या से अपरा कहा जाता है |२३९-२४०१ प्रजापति ब्रह्मा की परम आयु दो परार्द्ध काल हैं। इतने ही समय तक उनकी स्थिति कही जाती है। इसके उपरान्त परमेष्ठी ब्रह्मा का प्रति सर्ग होता है । जिस प्रकार वायु के झोंके में दीप की ज्योति शान्त हो जाती है, उसी प्रकार प्रतिसर्ग

  • नास्त्ययं श्लोको घ. पुस्तके |