पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०३२

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एकशततमोऽध्याय | १०११ ॥१७६ ॥१७७ ॥१७८ ॥१७६ एवमादिक्रमेणैव वर्ण्यमानान्निबोधत | भूमेरधस्तात्सप्तैव नरकाः परिकीर्तिताः अधर्मसुनवस्ते स्युरन्धतामित्रकादयः । रौरवः प्रथमस्तेषां महारौरव एव घ अस्याधः पुनरप्यन्यः शीतस्तप इति स्मृतः । तृतीयः कालसूत्रः स्यान्महाहविधिः स्मृतः अप्रतिष्ठश्चतुर्थः स्यादवीची पञ्चम स्मृतः | लोहपृष्ठस्तमस्तेषामविधेयस्तु सप्तमः घोरत्वाद्रौरवः प्रोक्तः साम्भको दहनः स्मृतः । सुदारुणस्तु शीतात्मा तस्याधस्तात्तमोऽधमः सर्पो निकृन्ततः प्रोक्तः कालसूत्रेऽतिदारुणः । अप्रतिष्ठे स्थितिर्नास्ति भ्रमस्तस्मिन्सुदारुणः ॥१८१ अयोचिर्दारुणः प्रोक्तो यन्त्रसंपीडनाच्च सः । तस्मात्सुदारुणो लोहः कर्मणां क्षयणाच्च सः ॥१८२ तथाभूते (त) शरीरत्वादविवे (घि ) भ्यस्तु स स्मृतः । पीडबन्धवधासङ्गादप्रतीकारलक्षणः ॥१८३ ऊर्ध्वं लोकैः समावेतौ निरालोकाश्च ते स्मृताः । दुःखोत्कर्षस्तु सर्वेषु अधर्मस्य निमित्ततः ॥१८० ॥१८४ भूमितल के निम्नप्रदेश में सात नरक लोक बतलाये जाते हैं, उन्हें क्रमानुरूप सुनिये । उन अधर्म से उत्पन्न होने वाले नरकों का नाम अन्धतामिस्र आदि है। उनमें रौरव सर्व प्रथम एवं महान् दारुण कष्ट पूर्ण है, दूसरा महा रौरव नामक है, तीसरा उसका निम्नप्रदेश में परम शीतल एवं अति उष्ण नरक स्मरण किया जाता है उसका नाम कालसूत्र है, वह तीसरा नरक है। उसका अपर नाम महाहवि विधि भी बतलाया जाता है। चौथा नरक अप्रतिष्ठ कहा जाता है, पाँचवा अवीची नामक नरक है । छठ लोह पृष्ठ नामक नरक है, सातवाँ अविधेय नाम से प्रख्यात है |१७५-१७६ | अतिशय घोर कष्ट प्रद होने के कारण प्रथम नरक का नाम रौरव पड़ा है। यह यद्यपि जलयुक्त है, पर परम ज्वलनात्मक है। उसके निम्नप्रदेश में परम शीतल, अति दारुण एवं अधम तम नामक नरक है |१८०1 कालसूत्र में डॅसनेवाला सर्प बतलाया जाता है इसलिए वह परम दारुण है । अप्रतिष्ठ नरक में किसी प्रकार भी प्राणी ठहर नहीं सकता, क्योंकि उसमें अतिशय दारुण भंवरे उठती रहती है | यन्त्र द्वारा पीडित किया जाता है— इसी कारण से अवोचि नरक भी परम दारुण कहा जाता है । उससे भी दारुण लौपृष्ठ नामक है। उसमें जलकर मनुष्यो के समस्त कर्म विलीन हो जाते हैं, इसी कारण परम दारुण वह भी कहा जाता | सातवें अविधेय नामक नरक में तथाकथित अशरीरी रहने पर भी प्राणी को जिस बन्धन जनित पीड़ा एवं कष्ट को सहन करना पड़ता है वह परम असह्य हो जाता है, उसके प्रतिकार का कोई उपाय नहीं दिखाता । ये नरक लोक सब के सब पर्वतों के समान भीपणाकार एवं आलोक से सर्वदा विहीन कहे जाते हैं। अधर्म के कारण इन सत्रों में प्राणियों को असह्य यातना का अनुभव करना पड़ता है । इन सबों में दुःखो का प्राबल्य रहता है । १८११५४ विशेषतया अत्र ख घ पुस्तकयोरधिकमधं वर्तते तद्यथा सुखोत्कर्षः स्मृतः सर्वे धर्मस्य हिः निमित्ततः । तथा ङ. पुस्तकेऽपि 'दुःखोत्कर्षः स्मृतः सर्वे धर्मस्य हि निमित्ततः । इति । ₁