पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०३६

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एकशततमोऽध्यायः वायुरुवाच ॥२१३ व्यक्तं तर्केण पश्यन्ति योगात्प्रत्यक्षदर्शिनः । प्रत्याहारेण ध्यानेन तपसा च क्रियात्मनः ऋभुः सनत्कुमाराद्याः संबुद्धाः शुद्धबुद्धयः । व्यपेतशोका विरजाः सन्तो व्रह्मैव सत्तमाः "अक्षयाः प्रोतिसंयुक्ता ब्रह्म निष्ठन्ति योगिनः | ऋषीणां वालखिल्यानां तैर्यथाहृतमीश्वरः यथा चैव नया दृष्टं सांनिध्यं तत्र कुर्नता | अतर्ह्य (वर्य) सत्कृतार्थानामालयं चेश्वरस्य यत् ॥ २१४ ईश्वरः परमाणुत्वाद्भावग्राह्यो मनीषिणाम् | ज्ञानं वैराग्यमैश्वर्य तपः सत्यं क्षमा धृतिः दृष्टत्वमात्यसंवन्धमधिष्ठानत्वमेव च | अव्ययानि दशैतानि तस्तिष्ठन्ति शंकरे 'विभुत्वात्खलु योगाग्निर्ब्रह्मणोऽनुग्रहे रतः । स लोकविग्रहो सूत्वा साहाय्यमुपतिष्ठते अक्षरं ध्रुवमव्यग्रमष्टमं त्वौपसंगिकम् | तस्येश्वरस्य यन्मानं स्थानं मायामयं परम् मायया कृतमाचष्टे मायी देवो महेश्वरः । देवानामुपसंहारस्तलप्रमाणं हि कीर्त्यते विस्तरेणाऽऽनुपूर्व्या च ब्रुवतो मे निबोधत | त्रयोदशैव कोटचस्तु नियुता दश पञ्च च ॥ भूर्लोका दुब्रह्मलोको वै योजनैः संप्रकीर्त्यते ॥२१५ ॥२१६ ॥२१७ १०१५ 1 ॥२११ ॥२१२ ॥२१८ ।।२१६ ॥२२० --- वायु बाले – ऋषि वृन्द ! उस व्यक्त का मनीषीगण तर्क द्वारा, योगी गण अपने योग बल द्वारा प्रत्यक्ष एवं क्रिया निष्ठगण अपने सदनुष्ठान प्रत्याहार एवं ध्यान द्वारा दर्शन करते है । ऋभु शुद्धबुद्धि - सम्पन्न, सनत्कुमारादि शोक विरहित, रजोगुणहीन, सत्त्वगुण सम्पन्न, ब्रह्मपरायण साधु पुरुष, महान् ऐश्वर्य- शालो बालखिल्यादि महर्षिगण, एवं अक्षय प्रेम परायण ब्रह्मनिष्ठ योगी जन उस महान् ऐश्वर्यशाली भगवान् के निवास स्थल का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं, जो परम अतक्यं एवं सत्पुरुषो को कृतकृत्य करने वाला है । उस परम गुह्य भगवदालय का सन्निधान करते हुए मैने भी प्रत्यक्ष दर्शन किया है । वह ईश्वर परमाणु के समान होने से, केवल मनीषो पुरुषों की भावनाओं द्वारा गृहीत हो सकता है | ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, तपस्या, सत्य, क्षमा, धैर्य, दर्शकत्व, अधिष्ठानत्व एवं आत्मज्ञान -ये दस शाश्वत धर्म उस मङ्गलमय परमात्मा में नित्य ' प्रतिष्ठित रहने वाले हैं | २११ - २१६ | वह विभु है, योगिजनों की योगाग्नि भी उसी परम ब्रह्म के अनुग्रह से उद्दीप्त होती है। वह शरीर धारण कर सामान्य लोगों का निरन्तर उपकार किया करता है। उस परम ईश्वर का वह अधिष्ठान भी परम एवं परिणाम विहोन है, परम स्थिर है, सुख दुःखादि जागतिक जंजालों से रहित है, मायामय एवं सत्स्वरूप है । यही आठ प्रकार की प्रकृतियों का मूल आश्रय है, समग्र सृष्टि विस्तार का मूलाधार है। मङ्गलमय महेश्वर ने, मायामय होकर उसको सृष्टि की है, उसी स्थल पर दिव्य गुण मय देवताओ का सम्यक् उपसंहार होता है। उसका विस्तार एवं अनुक्रम पूर्वक वर्णन मैं आगे कर रहा हूँ, सुनिये । इस भू लोक से ब्रह्म लोक का अन्तर तेरह कोटि पन्द्रह नियुत योजन कहा जाता है | २१७-२२०। उक्त ब्रह्म