पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०४४

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

एकशततमोऽध्यायः १०२३ ॥२८४ ॥२८५ ॥२८६ ।।२८७ ॥२८८ मन्वन्तराण्यनेकानि व्यवर्तन्त पुनः पुनः । श्रूयतां देवदेवस्य भविष्याश्चर्यमुत्तमम् व्याघ्राश्चैवानुगास्तत्र काञ्चनाभास्तरस्विनः | स्वच्छन्दचारिणः सर्वे स्वयं देवेन निर्मिताः मृत्योमृत्युसमास्ते तु यमदर्षापहारिणः | विभूतिमप्यसंख्येयां को न खल्वशिधास्यते अतः परमिदं भूयो भवेनाद्भुतमुत्तमम् | भूतानामनुकस्पार्थं यत्कृतं तन्निबोधत मन्दाराद्रिप्रकाशानां बलेनाप्रतिभौजसाम् । हारकुन्देन्दुवर्णानां विद्युद्धननिनादिनाम्* चूडामणिधराणां वै मेघसंनिभवाससाम् । श्रीवत्साङ्कितवज्राणामङ्गुलीशूलपाणिनास् एवं दिशानां देवानां रूपेणोत्तमशालिनाम् | तस्य प्रासाद मुख्यस्य स्तम्भेषूत्तमशोभिषु संयताग्निमयोभिस्तु शृङ्खलाभिः पृथ्वपृथक् । सायासहस्रं सिंहानां सुखं तन्त्र निवासिनाम् स्तम्भेऽप्यपासृताषष्टं (?) त्र्यम्बकस्य निवेशने | अथ तत्प्रतिसंपूज्य नायोर्वाक्यं सुविस्मिताः ॥ ऋषयः प्रत्यभाषन्त नैमिषेयास्तपस्विनः ॥२८६ ।।२६० ॥२६१ ॥२६२ 3 उत्तम आश्चर्य जनक घटनाएँ सुनिये | सुवर्ण के समान पीले वर्ण वाले परम वेगशाली व्याघ्र उनके अनुगामी रहते हैं । वे सब अपनी इच्छा ' अनुसार गमन करते हैं देवदेव ने स्वयमेव उनका निर्माण किया है | २८२- २८५७ वे मृत्यु के लिये भी मृत्यु के समान हैं, यमराज के भी दर्प को चूर्ण करनेवाले हैं । अर्थात् उन्हें मृत्यु का कोई भय नहीं रहता । इस प्रकार देवदेव की विभूतियों की कोई संख्या निश्चित नहीं है वे असंख्य है कौन उन्हें सम्पूर्णतया बतला सकता है। अब इसके उपरान्त मैं ऐसी अद्भुत एवं उत्तम विभूतियाँ बतलाऊँगा, भव ने जिन्हें जीवों के ऊपर असीम अनुग्रह करके निर्मित किया है, सुनिये । भव के उक्त उत्तम प्रासाद में जो परम शोभामय स्तम्भ लगे हुए हैं, उनमें उनकी माया द्वारा निर्मित एक सहस्र सिंहगण प्रदीप्त अग्नि के समान जाज्वल्यमान पाश द्वारा पृथक्-पृथक् बँधे हुए हैं। वहीं पर वे सुखपूर्वक निवास करते है । वे सिंहगण देखने में मन्दराचल के समान विशालाकार हैं, बल एवं तेज में उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है, मुक्ताहार, कुन्दपुष्प एवं चन्द्रमा के समान श्वेत उनके रंग हैं | बिजली संयुक्त मेघों की कड़क के समान वे भीषण निनाद करते है ।२८६-२८८। उनकी शिखाओं पर मणि शोभायमान हैं | मेघ के समान काले रंग के वस्त्रों से उनके शरीर वेष्टित हैं | श्रीवत्स चिह्न से वे सुशोभित है, अपने भीषण नखों से संयुक्त अंगुलियों को धारण करा शूल पाणि के समान है । दशों दिशाओं में देवताओं के समान सुन्दर स्वरूपधारी वे सिंह गण त्रयम्बक a के उक्त प्रासाद में शृङ्खलाबद्ध होकर विराजमान । वायु के इस कथन का अभिनन्दन करते हुए नैमि

  • इत उत्तरमेक: श्लोकोऽधिको ङ पुस्तके स यथा-

- सुदीर्घारितकायानामतविक्रूरचक्षुषाम् । दंष्ट्रोत्कटमहास्थानां महाविक्रमशालिनाम् । इति ।