पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०४७

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

१०२६ वायुपुराणम् वायुरुवा श्रूयतां देवदेवस्य भक्तिर्यैरनुकल्पिता | होमन्तः सृजिता दान्ताः शौर्ययुक्ता ह्यलोलुपाः ॥३११ ( + मध्याहाराश्च मात्राश्च आत्मारामा जितेन्द्रियाः । जितद्वंद्वा महोत्साहाः सौम्या विगतमत्सराः ॥ भावस्थाः सर्वभूतानामव्यापारा अनाकुलाः) | कर्मणा मनसा वाचा विशुद्धेनान्तरात्मना अनन्यमनसो भूत्वा प्रपन्ना ये महेश्वरम् तैर्लब्धं रुद्रमालोक्यं शाश्वतं पदमव्ययम् । भवस्य रूपसादृश्यं नीताश्चैव ह्यनुत्तमम् वैश्वानरमुखा सर्वे विश्वरूपा कर्पादनः । नीलकण्ठा सितग्रीवास्तीक्ष्णदंष्ट्रास्त्रिलोचना: अर्धचन्द्रकृतोष्णीषा जटामुकुटधारिणः । सर्वे दशभुजा वीराः पद्मान्तरसुगन्धिनः तरुणादित्यसंकाशाः सर्वे ते पीतवाससः । पिनाकपाणयः सर्वे श्वेतगोवृषवाहनाः श्रियान्विताः कुण्डलिनो मुक्ताहारविभूषिताः | तेजसोऽभ्यधिका देवः सर्वज्ञाः सर्वदशिनः विभज्य बहुधाऽऽत्मानं जरामृत्युविर्वाजताः । क्रीडन्ते विविधैर्भावर्भोगान्प्राप्य सुटुर्लभान् ॥३१२ ॥३१३ ॥३१४ ॥३१५ ॥३१६ ॥३१७ ॥३१८ ॥३१६ चायु ने कहा -- ऋषिवृन्द ! सुनिये | जो देव-देव भगवान् शंकर की भक्ति करते है, और सर्वदा लज्जान्वित, तपस्या के क्लेशो को सहन करने मे सशक्त, पराक्रमशील, अलोलुप, मिताहार विहार परायण, आत्मा मे रमण शील (आत्म चिन्तन मे निरत) जितेन्द्रिय, सुख दुःखादि द्वन्द्वो से परे, महोत्सव सम्पन्न, सव क साथ वन्धुत्व का व्यवहार मानते हुए, मत्सरादि से विहीन, भाव प्रवण, सभी जीवों में समदर्शिता का व्यवहार रखते हुए, आकुलता रहित, मनसा, वाचा, कर्मणा एव विशुद्ध अन्तरात्मा से भक्ति रख एवं अनन्य चित्त होकर शिव की शरण में जाते है, वे ही रुद्र का सायुज्य पद प्राप्त करते हैं, जो शाश्वत एवं अविनश्वर है । यही नहीं प्रत्युत वे भव के सर्वश्रेष्ठ स्वरूप मे भी समानता प्राप्त करते हैं । वे सभी शिवपुर निवासी अग्नि के समान मुखवाले सव तरह के स्वरूप धारण करने मे सशक्त, जटाजूट घारो, नीलकण्ठ, श्वेतग्रीव, तीक्ष्ण दाँत, त्रिलोचन, अर्द्धचन्द्र को शिर में धारण करने वाले, जटाओं के मुकुट से विभूषित, वीर तथा दस भुजाओं से सुशोभित होते हैं, उनके शरीर से पद्म के अन्तर्भाग को भांति भोनी- भीनी सुगन्ध आती है । वे मध्याह्न के सूर्य की तरह परम तेजस्वी होते हैं। सभी पीले रंग का वस्त्र धारण करते हैं । सव के हाथो मे पिनाक रहता है, सभी श्वेतवर्ण के वृषभ पर सवार होते हैं । ३११-३१७ | सुन्दर कुण्डल एवं हार से विभूषित होने पर उनकी निराली छटा होती है, वे सब के सब सर्वज्ञ, सर्वदर्शी एवं तेज मे एक दूसरे से चढ़े-बढ़े रहते है । वृद्धावस्था एवं मृत्यु के भय से रहित होकर वे शिवपुर निवासी अपने को अनेक + एतच्चिह्नान्तर्गत ग्रन्थो ग. पुस्तके न विद्यते ।