पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०५१

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१०३० वायुपुराणम् ॥३४८ ॥३४६ ॥३५० स एष ओतः प्रोतश्च वहिरन्तश्च निश्चयात् । एको हि भगवान्नाथ ह्यनादिश्चान्तकृद्विजाः ॥३४७ ततस्त ऋषयः सर्वे दिवाकरसमप्रभाः । स्वं स्वमाश्रमसंवासमारोप्याग्नि तथाऽऽत्मनि फर्मणा मनसा वाचा विशुद्धेनान्तरात्मना | अनन्यमनसो भूत्वा प्रपद्यन्ते सहेश्वरम् व्रतोपवासनिरताः सर्वभूतदयापराः | योगसनुपमं दिव्यं प्राप्तं तैश्छिन्नसंशयैः प्रपद्य परया भक्त्या ज्ञानयुक्तेन तेजसा । तैलब्धं रुद्रसालोक्यं शाश्वतं पदमव्ययम् यः पठेत्तपत्ता युक्तो वायुप्रोक्तसिसां स्तुतिम् । ब्राह्मणः क्षत्रियो वाऽपि वैश्यो वा स्वक्रियापरः || लभते रुद्रसालोवयं भक्तिमान्विगतज्वरः । अमद्यपश्च यः शूद्रो भवभक्तो जितेन्द्रियः आभूतसंप्लवस्थायी अप्रतीघातलक्षणः | गाणपत्यं स लभते स्थानं वा सार्वकामिकम् ॥३५१ ॥३५३ ॥३५४ विनाश दोनों करते है, वे रुद्र हैं, साममय हैं, यजुर्मय है | द्विजवृन्द ! वे बाहर भीतर सर्वत्र एक निश्चय से ओत-प्रोत रहते है । वे ही एक मात्र समस्त चराचर जगत् के नाथ हैं, उनका आदि नहीं है, वे स्वयं हो सब अन्तकर्ता हैं । वायु की इन बातों को सुनकर दिवाकर के समान परम तेजस्वी नैमिषारण्य - निवासी वे ऋषिगण अपने-अपने आश्रम में अग्नि का आधान करके मनसा, वाचा, कर्मणा शुद्ध अन्तरात्मा से अनन्य चित्त होकर महेश्वर की आराधना में लग गये ।३४४-३४६। व्रत एवं उपवास की साधना में पुन: लग गये । सभी जीवों पर दया का व्यवहार करने लगे। उनके समस्त संशय छिन्न हो गये थे । अतः उन्हें अनुपम दिव्य योग की प्राप्ति हुई | अपनी परम भक्ति एवं ज्ञानमय तेजोवल उन सबों को शाश्वत रुद्र-सालोक्य पद की प्राप्ति हुई। जो तपस्वी व्यक्ति वायु द्वारा बतलाई गई इस शिवपुरी की स्तुति का पाठ करता है 'वह चाहे ब्राह्मण हो, चाहे क्षत्रिय हो, चाहे अपने कार्य व्यापार में लगा हुआ वैश्य हो, रुद्र का सालोक्य प्राप्त करता है, रुद्र में उसकी भक्ति बढ़ती है, उसके सारे संताप दूर हो जाते हैं | जो जितेन्द्रिय शुद्र भव में भक्ति रखनेवाला है, और कभी मदिरा नही पान करता वह भी इसके पाठ से महाप्रलय तक की परमायु प्राप्त करता है, इस महान् अवधि में उसे कोई कष्ट भी नहीं होता, अथवा सभी मनोरथों को पूर्ण करनेवाले गणपति का पद उसे प्राप्त होता है । यदि शुद्र मद्यप हैं तो वह भी मद्यप भूतगणों के साथ आनन्द का अनुभव करता है । पृथ्वी तल में पूज्य होकर वह इत उत्तरमधिकमधं ख. पुस्तके तद्यथा- शिवलोके स वसति यावदाभूतसंप्लवम् । इति ।