पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०६४

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द्वयधिकशततमोऽध्यायः । महदाद्यं विशेषान्तं सवैरूप्यं विलक्षणम् । विकारलक्षणं तद्वै साक्षरक्षरमेव च तमेव च विकारं तु यस्माद्वै क्षरते पुनः । तस्माच्च कारणाच्चैव क्षरमित्यभिधीयते

  • संसारनरकेभ्यश्च त्रायते पुरुषं च यत् । दुःखत्राणात्पुनश्चापि क्षेत्रमित्यभिधीयते

सुखदुःखमोहभावाद्भोज्यमित्यभिधीयते । अचेतत्वाद्धि विषयस्तद्धि धर्मविभुः स्मृतः न क्षोयते न क्षरति विकारप्रसृतं तु तत् । अक्षरं तेन चाप्युक्तमक्षीणत्वात्तथैव च यस्मात्पुर्यनुशेते च तत्मात्पुरुष उच्यते । पुरप्रत्ययिको यस्मात्पुरुषे + त्यभिधीयते पुरुषं कथयस्वाथ कथं तज्जैविभाष्यते । शुद्धो निरञ्जनाभासो ज्ञानाज्ञानविवर्जितः अस्ति नास्तीति सोऽन्यो वा बद्धो मुक्तो गतः स्थितः । नैर्हेतिकान्त निर्देश्यसूक्तस्तस्मिन्न विद्यते ॥११६ शुद्धत्वान्न तु देश्यो वै हृष्टत्वात्समदर्शनः । आत्मप्रत्ययकारी सारनूनं ( ? ) चापि हेतुकम् ॥ भावग्राह्यमनुमान्यं चिन्तयन प्रमुह्यते ॥११८ यदा पश्यति ज्ञातारं शान्तार्थं दर्शनात्मकम् | दृश्यादृश्येषु निर्देश्यं तदा तदुद्धरं वरम् १०४३ ॥११२ ॥११३ ॥११४ ॥११५ ॥११६ ॥११७ ॥१२० ॥१२१ कारण क्षेत्रज्ञ लोग उसकी क्षेत्र संज्ञा बतलाते हैं, सर्वरूप्य विलक्षण महत् से लेकर विशेष तक समस्त क्षराक्षर पदार्थ निचय विकार कहे जाते हैं | उन समस्त विकारों से पुनः क्षरण होता देखा जाता है इसीलिये उन्हें क्षर कहते हैं । संसार एवं नरकों से पुरुष की रक्षा करता है, अनेक दुःखों से उसे पुनः पुनः बचाता है, अतः उसको क्षेत्र कहते हैं । सुख, दुःख एवं मोह उत्पन्न करता है, अतः उसकी भोज्य नाम से भी प्रसिद्धि है, अचेतन विषय होने के कारण वह सर्वव्यापी विभु नाम से स्मरण किया जाता है ।११०-११५। वे सब विकार समूह यतः कभी क्षय नहीं होते, क्षीण नही होते, अतः अक्षर नाम से भी विख्यात है। पुर में सर्वदा शयन करने के कारण पुरुष नाम पड़ा, पुर का प्रत्ययी होने से भी उसकी पुरुष नाम से प्रसिद्धि है । पुरुष के लक्षण क्या है ? उसके जाननेवाले उसे किस रूप में जानते है – इसे अब बतला रहे है, सुनिये । वह पुरुप शुद्ध, निरञ्जन की तरह परम निर्मल, ज्ञान एवं अज्ञान दोनों से विवर्जित, अस्ति तथा नास्ति इन दोनों विशेषणो से रहित है । उसके लिए बद्ध, मुक्त, गतिशील एवं स्थिर कोई भी विशेषण लागू नहीं होता । परम शुद्धता के कारण वह अनिर्देश्य एवं आनन्द स्वरूप कहा जाता है । परम हृष्ट होने कारण समदर्शी कहा जाता है । आत्मप्रत्यय कर्त्ता होने के कारण उनमे कोई हेतु वाद नही रहता । वह भावनाओं द्वारा ग्राह्य तथा अनुमानों एवं चिन्तनो द्वारा गभ्य है | इन उपायों द्वारा उसे देखनेवाले मोह के वश नही होते ॥११६ - १२० । इस दृश्य एवं अदृश्य विश्व प्रपश्च में एक मात्र निर्देश्य, परम श्रेष्ठ, ज्ञानमय, शान्तिमय सर्वज्ञ पुरुष को जब

  • अयं लोको न विद्यते क घ पुस्तकयोः । + अत्र संधिराष: ।