पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०७४

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त्र्यधिकणततमोऽध्यायः निर्यन्तरस्तु प्रोवाच तथा वाजश्रवाय च । स ददौ सोमशुष्माय स ददौ तृणबिन्दवे तृणबिन्दुस्तु दक्षाय दक्षः प्रोवाच शक्तये । शक्तेः पराशरश्चापि गर्भस्थः श्रुतवानिदस् पराशराज्जातुकर्णस्तस्माद्वैपायनः प्रभुः । द्वैपायनात्पुनश्चापि मया प्रोक्तं द्विजोत्तमाः शांशपायन उवाच मया वै तत्पुनः प्रोक्तं पुत्रायामितबुद्धये । इत्येव वाचा ब्रह्माद्रिगुरुणा समुदाहृता नमस्कार्याश्च गुरवः प्रयत्नेन मनोषिभिः | धन्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं सर्वार्थसाधकम् पापघ्नं नियमेनेदं श्रोतव्यं ब्राह्मणैः सदा | नाशुचौ नापि पापाय नाप्यसंवत्सरोषिते नाश्रद्दधानाविदुषे नापुत्राय कथंचन | नाहिताय प्रदातव्यं पवित्रमिदमुत्तमम् अव्यक्ते वै यस्य योनि वदन्ति व्यक्तं देहं कालमन्तर्गतं च | बह्न वक्त्रं चन्द्रसूर्यौ च नेत्रे दिशः श्रोत्रे घ्राणमाहुश्च वायुम्* १०५३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥६ ॥७० " ॥७१ इसका उपदेश दिया । उसके उपरान्त निर्यम्तर ने वाजश्रवा को वाजश्रवा ने सोमशुष्मा को और उन्होंने तृणबिन्दु को इसका उपदेश किया । तृणविन्दु ने दक्ष को, और दक्ष ने शक्ति को दिया । शक्ति से इसका उपदेश गर्भस्थ पराशर ने प्राप्त किया । पराशर से जातुकर्ण और जातुकर्णं से परम ऐश्वर्यशाली द्वैपायन ने इसे प्राप्त किया । द्विजवृन्द ! उन्हो द्वैपायन से इसकी शिक्षा मुझे प्राप्त हुई, और मैंने आप लोगों को सुनाया ।६०-६६ शांशपायन बोले:- द्विजवृन्द ! इस प्रकार मैं भी व्यास से प्राप्त इस पुण्य कथा को अपने पुत्र अमित बुद्धि को भी सुना चुका हूँ | इसके आादि गुरु ब्रह्मा हो हैं । इस प्रकार इस पुण्य गाथा का वर्णन मैं आप लोगों से कर चुका बुद्धिमानों को सर्वप्रथम गुरुजनों को नमस्कार करना चाहिए | धन, पुण्य, आयु, यश एवं मनोरथों को देनेवाले इस पापनाशक वृत्तान्त को ब्राह्मणों को सर्वदा नियमपूर्वक सुनना चाहिये । इस परम पवित्र एवं उत्तम आख्यान को कभी भूलकर अपवित्र, पापात्मा एवं ऐसे अनजान व्यक्ति को न बतलाना चाहिये, जो सेवा भाव ग्रहण कर शिष्य रूप में एक वर्ष तक सेवारत न रह चुका हो । इमो प्रकार इसका उपदेश गश्रद्धालु, अविद्वान्, अपुत्री एवं अहितकारी व्यक्ति को भी कभी न देना चाहिये । अव्यक्त जिसकी योनि, (उत्पत्ति स्थली) है, व्यक्ताव्यक्त काल जिसकी देह है, अग्नि जिसका मुख है, चन्द्रमा और सूर्य जिसके नेत्र हैं, दिशाएँ जिसके कान हैं, वायु जिसकी नासिका है, वेद समूह जिसको वाणी है,

  • इत उत्तरग्रन्थस्त्रुटितो ङ पुस्तके ।