पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०८२

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चतुरधिकशततमोऽध्यायः युक्तमम्भोजपवनैः सेव्यमानं समन्ततः । शिवैरध्यासितं भावहितैः सत्त्वैः समुज्झितस् निर्जनं दिव्यलतिकाप्रियखण्डविराजितम् । शुकैः पारावतेह् द्यैरुन्सदत्सत्तकोकिलस् उत्पतत्पद्मरजसां पटलामोददिङ्मुखम् । तत्रापि काञ्चनी दिव्या गुहा परमशोभना तां प्रविश्य जिताहारो जितचित्तो जितासनः । सस्मार वेदांश्चतुरस्तदेकाग्रमना मुनिः त्रयी जगाम शरदां शतस्य स्मरतोऽस्य हि । प्रादुरासंस्ततो वेदाश्चत्वारश्वारुदर्शनाः स्फुरत्पद्मपलाशाक्षा जटामुकुटधारिणः । कुशमुष्टिकराम्भोजा मृगत्वङ्मण्डितांसकाः स्वरैः षोडशभिः क्लृप्तवदनाः प्रणवान्तराः | कचवर्गोद्भवैर्वर्णैः पञ्चावयवपाणयः पवर्गदक्षचरणा वामपादास्तवर्गतः । आत्त (त) रन्त्यन्तवर्णाश्च येषां कुक्षिद्वयात्मको नाभिनिद्राः कान्तपृष्ठा मोदरा यरलवोत्कचाः | अग्निदक्षांशरुचिरा धराग्रीवा भृतांसकाः अन्तस्थसंस्थाना वैखरोवाग्विजृम्भिताः | अपश्यन्मधुरामोषां हृदयाम्भोजकल्पिताम्

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॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥६६ ॥७० ॥७१ ॥७२ ॥७३ ॥७४ में विचरण करने वाले वायु से वहाँ का वातावरण अत्यन्त शुद्ध हो रहा था । हिंस्र जन्तु भी अपने क्रूर स्वभावों को छोड़ कर वहाँ वैर विहीन एवं उपकारी भावों से जीवन व्यतीत करते थे। चारों ओर निर्जनता- का साम्राज्य था । दिव्य लताओं के समूहों से एक विचित्र प्रकार की शोभा थी | हृदय को आकर्षित करने वाले शुकों पारावतों के समूह तथा मतवाले कोकिलों के शब्द हो रहे थे । कमलों के पराग हवा के साथ उड़ कर दिशाओं को आमोदित कर रहे थे, पटल की सुगन्धि चारों ओर व्याप्त हो रही थी। ऐसे परम रमणीय वन्य प्राप्त में सुवर्णमयो परम शोभा सम्पन्न वह गुफा थी, उस पवित्र गुफा में प्रविष्ट होकर व्यास जी ने आहार, चित्त, एवं आसन पर अधिकार प्राप्त करके एकाग्र मन से चारों वेदों का स्मरण किया |६३-६८ उस प्रकार वेदों का स्मरण करते करते उनके तीन सो वर्ष जब व्यतीत हो गये, तब उन परम पवित्र चारों वेदों का प्रार्दुभाव हुआ, उनके मनोहर नेत्र विकसित कमलदल के समान मनोहर थे, उनके शिरोभाग जटा एवं मुकुट से अलंकृत थे, उनकी मुट्टियों में कुश के स्तवक तथा कमल विराजमान थे, पवित्र मृगचर्म से उनके स्कन्ध- प्रदेश को एक अनूठी शोभा हो रही थी ।६९-७०१ सोलह स्वरों एवं बीच बीच में प्रणव के उच्चारणों से उनके मुख को शोभा वृद्धि हो रही थी । कवर्ग एवं चवर्ग के सभी वर्गों से उनके हाथो की पाँच पाँच अङ्गुलियों समेत दोनों हाथों की शोभा बढ़ रही थी। पवर्ग उनके दक्षिण चरण एवं तवर्ग नाम चरण की शोभा कर रहे थे । उन सबों के दोनों कुक्षिप्रदेशों में अन्त्य वर्ण विराजमान थे । न वर्ण उनके नाभिप्रदेश क पृष्ठप्रदेश, म उदरदेश और य र ल केशपाशों के शोभादायक थे । अग्निवीज दक्षिण स्कम्घप्रदेश, पृथ्वीबीज ग्रीवा प्रदेश तथा भृत वाम स्कन्धप्रदेश में विराजमान थे। सभी अन्तस्थ (यवरल) वर्ण उनको सन्धियों में शोभायमाम थे, वैखरी वाक् से वे प्रस्फुरित हो रहे थे । व्यासदेव ने उन वेदों के हृदय कमल प्रदेश में अवस्थित