पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१०८४

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१०६३ संहिताभिश्च तन्त्रैश्च पृथक्पृथगुपासितानू | कर्मज्ञानोपासनाभिर्जनानुग्रहकारकान् ॥८६ दृष्ट्वा सुविस्मितमना मुनिः कृष्णो बभूव तान् | ब्रह्मेतजोमयान्दिव्यांस्तपतोऽर्कानिव च्युतान् || ज्वलतोऽग्नीनिवोदर्कात्कोटीन्दुसमदर्शनान् ॥८७ ॥८८ ॥८६ ॥ बवन्दे सहसोत्थाय दण्डवत्पतितो मुनिः । कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहमितीरयन् अद्य मे सफलं जन्म अद्य मे सफलं मनः । अद्य मे सफलं चाऽऽयुर्थ.द्भवन्तोऽक्षिगोचराः अलौकिकं लौकिकं च यत्किचिदपि विद्यते । न तद्वोऽविदितं वेद्यं भूतं भव्यं भवच्च यत् न प्रवृत्तिफला यूयं दर्शयन्तोऽपि तान्सदा । यदृक्षाकरसंकोचविधानायेह रागिणाम् प्रपञ्चस्यापि मिथ्यात्वे ब्रह्मत्वे वा विधीतरौ | तृषारागविषयौ तत्संकोचविधिक्षयौ अतो लोकहितैर्नूनं परमार्थानिरूपणे | स्वोक्ताः स्वर्गादिविषया नश्वरा इति निन्दिताः अधिकारिविभेदेन कर्मज्ञानोपदेशतः । ऋातं सर्वं जगन्नूनं शब्दब्रह्मात्मनुतिभिः ॥६१ ॥६२ ॥६३ ॥६४ चतुरधिकशततमोऽध्यायः अग्नि को, श्रुतियों में हवनीय अग्नि को तथा रोम कूपों में अवस्थित निखिल मन्त्र समूहों के व्यास को दर्शन हुए | न्याय मिश्रित समस्त पुराण गण मर्त्यो की तरह वेद महाराज का पूजन कर रहे थे । संहिताएँ भी पृथक् पृथक् रूप से उन सब की उपासना मे तलर थीं। कर्म, ज्ञान, एवं उपासना - इन तीनो अङ्गों से उन भक्त जनानुग्रहकारी वेदों की अर्चा की जा रही थी । उपर्युक्त विशेषताओं से विशिष्ट चारों वेदों को देखकर कृष्णद्वैपायन व्यास देव परम विस्मित हुए | उस समय ब्रह्म तेजोमय दिव्य गुण सम्पन्न वे वेद गण अतिशय प्रभा से पूर्ण प्रभाकर की भाँति आकाश से गिरते हुए की भांति दिखाई पड़ रहे थे । प्रज्वलित अग्नि को लपटों को भाँति उनके मुखमण्डल से अनुपम ओज दिखाई पड़ रहा था । इतने पर भी वे कोटि चन्द्रमा के समान सुन्दर लग रहे थे 1८४-८७७ इस प्रकार सम्मुख समागत चारों वेदों को देखकर मुनिवरेण्य व्यासदेव दण्डवत् पृथ्वी पर गिर पड़े और कृतार्थ हो गया, कृतार्थ हो गया, कृतार्थ हो गया - यह कहते हुए बोले, भगवन् ! आज मेरा जन्म सफल है, मेरा मन कृतार्थ हो गया, मेरी आयु फलवती है, जो आप लोगों के अलभ्य दर्शन प्राप्त हुए । इस जगत् में अलौकिक अथवा लौकिक, जो कुछ भी पदार्थ है, वे आप लोगों से छुपे हुए नही है, यही नहीं जो कुछ भी ज्ञातव्य भूत भव्यादि पदार्थ हैं वे सब भी आप को विदित हैं | 'तुम सब केवल प्रवृत्तिमार्ग के उपदेष्टा नही हो ।' ऐसा आप लोग रागासक्त प्राणियों की स्वेच्छा - चरिता के संकोच के लिए विधान करते हैं । जगत्प्रपञ्चों के मिथ्यात्व एवं ब्रह्मत्व के प्रतिपादक जो विधि निषेधमय वचन आप लोगों के हैं - वे मिथ्या राग के विषय नहीं है, संकोच के विवि निषेधक है। आप लोग लोक कल्याण में निरत रहकर केवल परमार्थ निरूपण करते हैं, यही कारण है कि अपने कहे गये स्वर्गादि विषयों को नश्वर समझ कर निन्दित माना है ८८६३ अपने शब्द ब्रह्ममय शरीरों से आप लोगों ने