पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११०३

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१०८२ वायुपुराणम् ॥७१ ॥७२ + कि बहूक्त्या सुरगणा युष्मास्चेकाऽपि देवता | चेन्न तिष्ठेदहं चापि सभयः प्रतिपाल्यताम् ॥७० गयासुरवचः श्रुत्वा प्रोचुर्विष्ण्वादयः सुराः । त्वया यत्प्रार्थितं सर्वं तद्भविष्यत्यसंशयम् अस्मत्पादानचयित्वा यास्यन्ति परमां गतिम् । देवैर्दत्तवरो दैत्यो हषितो निश्चलोऽभवत् स्थितेषु चैव देवेषु ब्राह्मणेभ्यो ददावजः । ग्रामांश्च पञ्चपञ्चाशत्पञ्चक्रोशीं गयां तथा ॥ गृहान्कृत्वा ददौ दिव्यान्सर्वोपस्करसंयुतान् कामधेनुं कल्पवृक्षं पारिजातादिकांस्तरून् । महानदीं क्षीरवहां घृतकुल्यास्तथैव च मधुस्रवां मधुकुल्यां दिव्याज्याढ्यसरांसि च | सुवर्णदोधिकां चैव बहूननादिपर्वतान् भक्ष्यभोज्यफलादींश्च सर्व ब्रह्मा सृजन्ददौ । न याचध्वंहि विप्रेन्द्रा अभ्यानुक्त्वा ददावजः दत्त्वा ययौ ब्रह्मलोकं नत्वां ह्यादिगदाधरम् | धर्मारण्ये तत्र धर्मं याजयित्वा ययाचिरे धर्मयागे च लोभाद्वै प्रतिगृह्य धनादिकम् । ततो ब्रह्मा समागत्य ब्राह्मणांस्ता शशाप ह कृतवन्तो यतो लोभं मद्दत्तेष्वखिलेष्वपि । तस्मादृणाधिका यूयं भविष्यन्ति (थ) सदा द्विजाः ॥७३ ॥७४ ॥७५ ।७६ ॥७७ ॥७८ ॥७६ भी देवता इस शिला पर न रहेंगे तो मै भी स्थित न रह सकूंगा । यही प्रतिज्ञा है, इसका प्रतिपालन करते जाइयेगा ।६७-७०। गयासुर के वचन सुनकर विष्णु प्रभृति देवताओं ने कहा, गयासुर ! तुमने जो कुछ कहा है, वह सव सम्पन्न होगा इसमें सम्देह नहीं है । इस पवित्र तीर्थ में आनेवाले मनुष्य गण हम लोगों की पूजा करके परम गति प्राप्त करेंगे । देवगणों के इस प्रकार वरदान देने पर दैत्य परम हर्षित होकर निश्चलता को प्राप्त हुआ । उक्त शिला पर उपर्युक्त देवगणों के अवस्थित हो जाने पर ब्रह्मा ने यज्ञकर्ता ब्राह्मणों को पचपन ग्राम प्रदान किये । पञ्चकोशी गया पुरी को भी उन्हें उत्सर्ग कर दिया | गृहस्थी के सभी साधनों एवं सामग्रियों से समन्वित दिव्य गृहों का निर्माण कर उन्हें समर्पित किया। इसके अतिरिक्त कामधेनु गो, कल्पवृक्ष, पारिजात प्रभृति देवतरु क्षीरवाहिनी महानदी घृत पूर्ण छोटी वावलियां, मधुस्राविणी मनोहर नदी, मधुपूरित छोटी-छोटी गड़हियाँ, दिव्यगुण सम्पन्न घृतों से परिपूर्ण सरोवर, सुवर्णनिर्मित बावली, अनेक अन्नादिकों से बने हुए पर्वत, विविध प्रकार के भक्ष्य, भाज्य फलादि सामग्री भी उन्हें निर्माण करके समर्पित किया । दान करते समय अयोनिज ब्रह्मा जी ने ब्राह्मणों से कहा कि विप्रेन्द्रवृन्द ! आप लोग अब किसी दूसरे से याचना न करेंगे ।७१-७६। इस प्रकार ब्राह्मणों को दान देने के उपरान्त भगवान् मदाघर को नमस्कार कर ब्रह्मा अपने लोक को चले गये । धर्मांरण्य मे धर्मं ने एक यज्ञ का अनुष्ठान किया, उस यज्ञ में उन्हीं गयापुरीस्थ ब्रह्मणो ने लोभ वश धनादि को याचना की और अंगीकार किया। उनके इस निषिद्ध कर्म से अप्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उन्हें + अयं श्लोकः ख पुस्तकेन ।