पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११०४

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

षडधिकशततमोऽध्यायः युष्माकं स्याद्वारिवहा नदी पाषाणपर्वता | नद्यादयो वारिवहा मृन्मयाश्च तथा गृहाः कामधेनुः कल्पवृक्षो मल्लोकसुपतिष्ठताम् । एवं शप्ता ब्रह्मणा ते प्रार्थयन्तोऽब्रुवन्नजम् त्वया यद्दत्तमखिलं तत्सर्वं शापतो गतम् | जीवनार्थं प्रसादं नो भगवन्कर्तुमर्हसि तच्छ्रुत्वा ब्राह्मणान्ब्रह्मा प्रोवाचेदं दयान्वितः | तीर्थोपजीविका यूयमाचन्द्रार्क भविष्यथ लोकाः पुण्या गयायां ये श्राद्धिनो ब्रह्मलोकगाः । युष्मान्ये पूजयिष्यन्ति तैरहं पूजितः सदा आक्रान्तं दैत्यजठरं धर्मेण विरजाद्रिणा | नाभिकूपसमोपे तु देवी या विरजा स्थिता तत्र पिण्डादिकं कृत्वा त्रिः सप्तकुलसुद्धरेत् । महेन्द्रगिरिणा तस्य कृतौ पादौ सुनिश्चलौ ॥ तत्र पिण्डादिकृत्सप्त कृलान्युद्धरते नराः इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते गयामाहात्म्यं नाम षडधिकशततमोऽध्यायः ॥१०६॥ १०८३ ॥८० ॥ ८१ ॥८२ ॥८३ ॥ ८४ ॥८५ ॥८६ शाप दिया कि तुम लोगों ने मेरे निखिल दिव्य सम्पत्ति के दान देने पर भी यतः लोभ नही छोड़ा अतः सर्वदा अधिक ऋणग्रस्त बने रहोगे । वे नदियाँ, मधु एवं क्षीरादि पदार्थों को वहन करनेवाली थी, अब केवल जल वाहिनी रहेगी, पर्वत पाषाणमय हो जायेंगे | वे दिव्य सामग्रियों वाले सुन्दर गृह अब मृत्तिकामय हो जायँगे ।७७-८०१ कामधेनु एवं कल्पवृक्षादि हमारे लोक में चले जायेंगे | अजन्मा ब्रह्मा जी से इस प्रकार अभिशप्त होने पर ब्राह्मणों ने निवेदन किया, देव ! आप ने कृपा पूर्वक जो वस्तुएँ हम लोगों को समर्पित की थीं, वे तुम्हारे शाप के कारण नाश को प्राप्त हो गईं। भगवन् ! हम लोगों को जीविका किस प्रकार चलेगी इसके लिये तो कृपा करें । ब्राह्मणों के इस आर्त्त निवेदन पर भगवान् ब्रह्मा को दया आ गई । वे बोले, अच्छा, अब से जब तक चन्द्रमा, सूर्य एवं ताराओं का अस्तित्व रहेगा तब तक तुम लोग तीर्थों द्वारा जीविका निर्वाह करोगे । जो पुण्यकर्मी लोग इस गयापुरी में आकर श्राद्ध कर्म सम्पन्न करेंगे वे ब्रह्मलोकगामी होगे । जो तुम लोगों की पूजा अर्चा करेंगे, वे मानों हमारी ही पूजा अर्चा करेंगे, तुम्हारी पूजा से हम सर्वदा सन्तुष्ट होंगे । इस गयापुरी में पवित्र विरज नामक गिरि से दैत्य का उदर भाग आक्रान्त है, इसके नाभि कूप के समीप विरजानामक देवी का निवास है, उस पवित्र स्थान पर पिण्डदानादि करके मनुष्य अपने इक्कीस कुलों का उद्धार करता है, महेन्द्र नामक गिरि ने दैत्य के दोनों चरणों को सुनिश्चल किया है, उस पवित्र स्थान पर पिण्डदानादि करनेवाला मनुष्य अपने सात कुलों का उद्धार करता है |८१-८६ | श्री वायु महापुराण का गयामाहात्म्य नामक एक सौ छठवाँ अध्याय समाप्त ||१०६॥