पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११०९

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५०८८ वायुपुराणम् पतिव्रतायास्तपसा मरीचेस्तपसा तथा | इन्द्रादयश्च संतप्ता गतास्ते शरणं हरिम् ऊचुः क्षोराम्बुधौ सुप्तं संतप्तास्तपसा हरे | पतिव्रतायाश्च मुनेस्त्रैलोक्यं रक्ष केशव इन्द्रादीनां वचः श्रुत्वा विष्णुर्धमत्रतो ययौ । एतस्मिन्नेव काले तु प्रबुद्धो भगवानजः ॥ तु ऊचुर्धमत्रतां देवा अग्निस्थां तां सकेशवाः अग्निमध्ये तपः कर्तुं कस्य शक्तिः पतिव्रते । त्वया कृतं तत्परमं सर्वलोकभयंकरम् वरं वरय धर्मज्ञे अस्मत्तो वदभीप्सितम् | विष्ण्वादीनां वचः श्रुत्वा देवान्धर्मव्रताऽब्रवीत् भर्तृ शापमशक्ताऽहं निवर्तयितुमोजसा | (दत्तो मरीचिना शापो मह्यं स ह्यपगच्छतु धर्मव्रतावचः श्रुत्वा प्रोचुरेतां सुराः पुनः । धर्मव्रते धर्मपुत्रि शापोऽयं परमर्षणा दत्तस्ते न निराकर्तुं शक्यो देवद्विजातिभिः | तस्मादन्यं वरं ब्रूहि यतो धर्मस्य संस्थितिः) भवेद्वै त्रिषु लोकेषु वेदोक्तस्य शुभवते | देवानां वचनं श्रुत्वा देवान्धर्मव्रताऽब्रवीत् ॥३३ ॥३४ ॥३५ ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३६ ॥४० ॥४१, तपस्या से इन्द्र प्रभृति देवगण परम सन्तप्त होकर विष्णु भगवान् की शरण मे गये । उस समय भगवान् विष्णु क्षीरसागर मे घायन कर रहे थे, उक्त दम्पति की कठोर तपस्या से सन्तप्त देवताओ ने वहाँ जाकर प्रार्थना की कि देव ! परम तपस्विनी प्रतिव्रता धर्मव्रता एवं मुनिवर मरीचि के दारुण तप को देखकर हम लोग बहुत दुःखी हैं, त्रैलोक्य की रक्षा कीजिये |३३ ३४| इन्द्रादि प्रमुख देवगणो का आर्त्तनिवेदन सुनकर भगवान् विष्णु धर्मव्रता के समीप गये, उधर इसी अवधि में स्वयम् भगवान् ब्रह्मा की भी नीद समाप्त हो गयी थी | अग्नि में अवस्थित होकर परम दारुण तपस्या में तत्पर धर्मव्रता को देखकर विष्णु समेत समस्त देवगण बोले, पतिव्रते ! अग्नि में स्थित होकर तपस्या करने की शक्ति किसमे है ? तुमने समस्त संसार को भयभीत कर देने वाले उस परम दारुण तप का अनुष्ठान किया है, जिसे कोई नही कर सकता। धर्म के मर्म को तुम समझने वाली हो । अपनी इच्छा के अनुरूप वरदान हम से माँग लो । विष्णु प्रभृति देवताओ का वचन सुनकर धर्मव्रता ने कहा, देववृन्द ! पति के शाप का निराकरण मैं अपने स्वभाविक तेज से नही कर सकती थी, अतः उसी को निराकृत करने के लिये तपस्या कर रही हूँ । पतिदेव मुनिवर मरीचि ने मुझे शाप दे दिया है, वह दूर हो जाय - यही मेरी कामना है | ३५-३६॥ धर्मव्रता की बातें सुनकर देवताओं ने पुनः कहा; धर्म-पुत्रि धर्मव्रते ! यह शाप परमऋषि मरीचि का दिया हुआ है, देवताओं एवं ब्राह्मणो में इसे निष्फल करने की शक्ति नही है । इसलिए किसी अन्य वरदान की प्रार्थना करो, जिससे धर्म को मर्यादा विचलित न हो । शुभवते ! वेदो में वर्णित धर्म की जिस प्रकार मर्यादा न विगड़े उसका विचार कर तीनो लोकों में चाहे परम दुर्लभ क्यों न हो

  • धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति |