पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१११४

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अष्टाधिकशततमोऽध्यायः जन्मान्तरशतं साग्रं यत्कृतं दुष्कृतं मया | तत्सर्वं विलयं यातु रामतीर्थाभिषेचनात् मन्त्रेणानेन यः स्नात्वा श्राद्धं कुर्वीत मानवः । रामतीर्थं पिण्डदस्तु विष्णुलोकं प्रयात्यसौ || तथेत्युक्त्वा स्थितो रामः सोतया भरताग्रजः राम राम महाबाहो देवानामभयंकर | त्वां नमस्येऽत्र देवेशं मस नश्यतु पातकम् मन्त्रेणानेन यः स्नात्वा श्राद्धं कुर्यात्सपिण्डकम् | प्रेतत्वात्तस्य पितरो विमुक्ताः पितृतां ययुः आपस्त्वमसि देवेश ज्योतिषां पतिरेव च । पापं नाशय से देवो सनोवाक्कायकर्म जम् नमस्कृत्य प्रभासेशं भासमानं शिवं व्रजेत् । तं च शंभुं नमस्कृत्य कुर्याद्यमबलि ततः रामे वनं गते शैलमागत्य भरतः स्थितः । पितृपिण्डादिकं कृत्वा रामं संस्थाप्य तत्र च रामं सीतां लक्ष्मणं च मुनीन्स्थापितवान्प्रभुः । भारतस्याऽऽश्रमे पुण्ये नित्यं पुण्यतमैर्वृतम् ॥ [+ मतङ्गस्य पदं तत्र दृश्यते सर्वमानुषः १०६३ ॥१८ ॥१६ ॥२० ॥२१ ॥२२ ॥२३ ॥२४ ॥२५ कर लें । इसी कारण से वह पवित्र स्थान रामतीर्थ के नाम से तीनों लोकों में विख्यात है। सैकड़ों जन्म में जो पाप कर्म किये हों वे सब पवित्र रामतीर्थं में अभिषेचन मात्र करने से विनाश को प्राप्त हों । इस मन्त्र का उच्चारण कर रामतीर्थ में जो मनुष्य स्नान करे तथा वहाँ पिण्डदान करे वह भगवान् विष्णु के लोक को प्राप्त करे ।' महानदी को उक्त प्रार्थना को सुनकर भरत के बड़े भाई श्रीरामचन्द्र जो वहाँ रुक गये ।१६-१६। महाबाहु, देवताओं को अभय प्रदान करनेवाले राम, हम तुम्हें बारम्बार नमस्कार करते हैं, देवेश ! मेरे पाप कर्मों का नाश हो । इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए जो प्राणी उस रामतीर्थ में स्नान कर, पिण्ड समेत श्राद्ध कर्म सम्पन्न करते हैं उसके पितर गण प्रेतयोनि से छुटकारा पाकर पितरलोक को प्राप्त करते हैं । हे देवेश ! आप स्वयमेव जलस्वरूप हैं, चन्द्रसूर्यादि ज्योतिः पदार्थों के पालक आप ही है. देव ! मेरे मानसिक, वानिक एवं शारीरिक पापकर्मों का विनाश कीजिये | इस मन्त्र से प्रभासेश को नमस्कार करने के उपरान्त परम ज्योतिर्मय शिव के समीप जाना चाहिये । वहाँ शम्भु को नमस्कर कर यमराज के लिये बलिकर्म करना चाहिये । श्रीरामचन्द्र जी के वन चले जाने पर भरतजी पर्वत पर आकार स्थित हुए थे और वही पिता के पिण्डदानादि को सम्पन्न कर श्रीराम सीता, लक्ष्मण एवं अन्यान्य मुनिगणों की मूर्तियों का स्थापन किया था । महात्मा भरत के उस पुनीत आश्रम में सर्वदा पवित्रात्माओं के निवास होते हैं। वहीं पर मतङ्ग का आश्रम भी सभी मनुष्यों को दिखाई पड़ता है ।२०- २५ | इस लोक में धर्म के निदर्शनार्थ उस परम धार्मिक मङ्गल + धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके न विद्यते ।