पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११२

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एकांदशोऽध्यायः ६३ २२ २३ कलामात्रस्तु विज्ञेयो निमेषोन्मेष एव च। तथा द्वादशमात्रस्तु प्राणायामो विधीयते २१ धारणाद्वादशायामो योगो वै धारणाद्वयम् । तथा वै योगयुक्तश्च ऐश्वर्यं प्रतिपद्यते वीक्षते परमात्मानं दीप्यमानं स्वतेजसा। प्राणायामेन युक्तस्य विप्रस्य नियतात्मनः सर्वे दोषाः प्रणश्यन्ति सत्त्वस्थश्चैव जायते । एवं वै नियताहरः प्राणायामपरायणः २४ जित्वा जित्वा सदा भूमिमारोहेतु सदा मुनिः। अजिता हि महाभूमिदोषनुत्पादयेबहून् ।।२५ विवर्धयति संमोहं न रोहेदजितां ततः। नालेन तु यथा तोयं यन्त्रेणैव बलान्वितः २६ आपिबेत प्रयत्नेन तथा वायं जितश्रमः । नाभ्यां च हृदये चैव कण्ठे उरसि चऽऽनने नासाने तु यथा नेत्रे भ्रवोर्मध्येऽथ मूर्धनि । किञ्चिद्ध्वं परमश्र धारणा परम स्मृत प्राणायामसमारोधात्प्रणयमः स कथ्यते । मनसो धारणा चैव धारणेति प्रकीfतता निवृत्तिविषयाणां तु प्रत्याहारस्तु संज्ञितः । सर्वेषां समवाये तु सिद्धिः स्याद्योगलक्षण ३० तयोत्पन्नस्य योगस्य ध्यानं वै सिद्धिलक्षणम् । ध्य(नयुक्तः सदा पश्येदात्मानं सूर्यचन्द्रवत् ॥३१ सत्वस्यानुपपत्तौ तु दर्शनं तु न विद्यते । अदेशकालयोगस्य दर्शनं तु न विद्यते ।।२७ ।२८ ।।२& ३२ है। प्राणायाम के लिये बारह मात्रा का काल बताया गया है ।२०-२१। बारह प्राणायामों की एक धरण होती है और दो धाराणाओं का एक योग होता है । इस तरह जो योग करता है, उसे ऐश्वर्यं प्राप्त होता है, वह अपने तेज से प्रदीप्त होकर परमात्मा का दर्शन करता है (२२-२३। जितेन्द्रिय और प्राणायाम करने वाले ब्राह्मण के सभी दोष नष्ट हो जाते है और वह सत्त्व गुण में प्रतिष्ठित हो जाता है । सधक आहार को नियत करके और प्राणायाम में आसक्त होकर एक-एक भूमि को जीतने के बाद आगे बढ़ यानी प्राणायाम सम्बन्धी पहली अवस्था में पूर्ण करके बाद वाली अवस्था को साधे । पूर्वभूमि को बिना जीते पर भूमि के लिये उद्यम करने से सम्मोहादि वहुतेरे दोष उत्पन्न हो जाते है ।२४-२५। इसलिये बिना जीती हुई (अजित) भूमि पर आरोहण न करे । यन्त्र नल के द्वारा जिस प्रकार जल बलपूर्वक लाये जाने पर पिया जाता है, उसी प्रकार परिश्रमी साधक प्राण वायु को भी ऊपर खींचे (यानी प्राणायाम करे) नाभि, हृदय, कण्ठवक्षस्थल, मुख, मसान त्र; भूमध्यं, मस्तक और ब्रह्मरंध्र में मन को स्थिर करे । प्राणापान|दि वायु के निरोध को प्राणायाम कहते और मन को धारणा ही धारणा कही जाती है |२६२३। विषयों से निवृति पाने को प्रत्याहार वहते हैं और इन सब को समष्टि रूप से सिद्धि हो जाने पर योगलक्षण प्रकाशित होता है ।३० । उससे उत्पन्न योग की सिद्धि का लक्षण ध्यान है । ध्यानयुक्त योगी अपने को सदा चन्द्र-सूर्य के समान देखे ।३१। सत्त्वगुण यो वृद्धि नहीं होने पर अथवा देश-कालादि के विचार से हीन योग होने पर दर्शन लाभ नही होता 1३२ अग्नि के निकट, वन