पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११४२

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एकादशाधिकशततमोऽध्यायः फल्गुतीर्थं व्रजेत्तस्मात्सर्वतीर्थोत्तमोत्तमम् । मुक्तिर्भवति कर्तृणां पितॄणां श्राद्धतः सदा ब्रह्मणा प्रार्थितो विष्णुः फल्गुको ह्यभवत्पुरा | दक्षिणाग्नौ हुतं तत्र तद्रजः फल्गुतीर्थकम् तोर्थानि यानि सर्वाणि भुवनेष्वखिलेष्वपि । तानि स्नातुं समायान्ति फल्गुतीर्थं सुरैः सह गङ्गा पादोदकं विष्णोः फल्गुह्यदिगदाधरः | स्वयं हि द्रवरूपेण तस्माद्ङ्गाधिकं विदुः अश्वमेधसहस्राणां सहस्रं यः समाचरेत् । नासौ तत्फलमाप्नोति फल्गुतीर्थे यदाप्नुयात् + फल्गुतीर्थे नरः स्नात्वा तर्पणं श्राद्धमाचरेत् । सपिण्डकं स्वसूत्रोक्तं नमेदथ पितामहम् नमः शिवाय देवाय ईशाय पुरुषाय वै । अघोरवामदेवाय सद्योजाताय शंभवे फल्गुतीर्थे नरः स्नात्वा दृष्ट्वा देवं गदाधरम् | आत्मानं तारयेत्सद्यो दश पूर्वान्दशापरान् ११२१ ॥१३ ॥१४ ॥१५ ॥१६ ॥१७ ॥१८ ॥१६ ॥२० रहा हूँ, पुत्र, पौत्र, धन, ऐश्वर्य, आयु एवं आरोग्य की वृद्धि के लिये नमस्कार कर रहा हूँ | तदनन्तर सभी तीर्थों में श्रेष्ठ फल्गुतीर्थ की यात्रा करनी चाहिए, वहाँ पर श्राद्ध करने से करने वालों की एवं उनके पितरों को सर्वदा मुक्ति होती है। ब्रह्मा की प्रार्थना पर प्राचीन काल में भगवान् विष्णु स्वयं फल्गु रूप में प्रतिष्ठित हुए । यज्ञ को दक्षिणाग्नि में आहुति रूप में पड़ा हुआ रज फल्गुतीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुआ | १२-१४१ निखिल भुवन मण्डल में जितने भी तीर्थ समूह हैं वे देवताओं के साथ इस फल्गुतीर्थ में स्नान करने के लिये आते है गङ्गा भगवान् विष्णु की पादोदक स्वरूप हैं, किन्तु फल्गु तो स्वयं आदि गदाधर स्वरूप है स्वयं द्रव रूप मे वे आदि गदाधर की मूर्ति है, यही कारण है कि गंगा से अधिक उनका माहात्म्य लोग बतलाते है ।१५-१६। जो व्यक्ति एक लाख अश्वमेघ यज्ञ करता है, वह भी इतना फल नही प्राप्त करता, जितना फल्गु में स्नान करनेवाला पाता है फल्गुतीर्थ में स्नान कर मनुष्य को तर्पण एवं सपिण्ड श्राद्ध कर्म अपने गृह्यसूक्त के अनुसार करना चाहिए, पितामह को नमस्कार करना चाहिये | शिव, ईश, पुरुष स्वरूप देव को हमारा नमस्कार है, अघोर वामदेव सद्योजात एवं शम्भु उपाधि धारण करने वाले देव देव को हम नमस्कार करते है |१७-१६। फल्गुतीर्थ में स्नान कर आदि गदाधर देव का दर्शन करने वाला मनुष्य अपने को तो तारता ही है, अपने से दस पीढ़ी पूर्व एवं दस पीढ़ी बाद में होनेवालों को भी तुरन्त तारता है। आदि गदाधर देव का इस मंत्र से नमस्कार © इत उत्तरमयं श्लोको वर्तते क. पुस्तकटिप्पण्याम् - तस्मिन्फलति फल्ग्वा गोः कामधेनुर्जलं मही । दृष्टेरन्तर्गतं यस्मात्फल्गुतीर्थं न निष्फलम् इति । ÷ फल्गुतीर्थे नरः स्नात्वा इत्यस्मात्प्राक् क पुस्तक टिप्पण्यामधिक एकः श्लोको वर्तते स यथा – फल्गुतीर्थे विष्णुजले करोमि स्नानमादृतः । पितॄणां विष्णुलोकाय भुक्तिमुक्तिप्रसिद्धये इति । फा०-१४१