पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११५२

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• द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥४ सिकता वा यथा लोके यथा च दिवि तारकाः । तथा रत्नसुवर्णाद्यैरसंख्यातास्तु दक्षिणा: नैवेह पूर्वे ये केचिन्न करिष्यन्ति चापरे । प्रशंसन्ति द्विजास्तृप्ता देशे देशे सुपूजिताः गयं विष्ण्वादयस्तुष्टा वरं ब्रूहोति चाब्रुवन् । गयस्तान्प्रार्थयामास अभिशप्ताश्च ये पुरा ब्राह्मणा ते द्विजाः पूता भवन्तु क्रतुपूजिताः । + गयापुरीति मन्नाम्ना ख्याता ब्रह्मपुरी यथा ॥५ एवमस्तु वरं दत्त्वा ततश्चान्तर्दधुः सुराः । गयश्च भोगान्संभुज्य विष्णुलोकं परं ययौ विशालायां विशालोऽभूद्राजाऽपुत्रोऽब्रवीद्द्वजान् । कथं पुत्रादयो मे स्युविशालं चानुवन्द्विजाः गयायां पिण्डदानेन तव सर्वं भविष्यति । विशालोऽपि गयाशीर्षे पिण्डदः पुत्रवानभूत् ॥६ ॥७ ॥द लोक में जितने जितने धूल कण हैं, अथवा आकाश में जितने तारे हैं, उतने रत्नों एवं सुवर्ण की मुद्राओं की उन यज्ञों में दक्षिणा दो गई थी तो भला उनकी संख्या कौन निश्चित कर सकता है । इस लोक में वैसे यज्ञ न तो हुए हैं और न भविष्य में कभी होंगे। सभी देशों के रहने वाले द्विजगण सन्तुष्ट होकर उसकी यशोगाथा का गान करते हैं। उसके इस महान कार्य से सन्तुष्ट होकर विष्णुप्रभृति देवताओं ने बनुरोध किया कि गय ! तुम वरदान माँगो । गय ने उन देवताओं से कहा, सुरगण यदि आप लोग सचमुच प्रसन्न हैं तो हमें यह वरदान दें कि प्राचीन काल में भगवान् ब्रह्मा ने जिन द्विजों को अभिशाप दे दिया था, वे भाज से यज्ञों में पूजित होकर पवित्र हो जायँ । यह पुरी मेरो नाम पर ब्रह्म पुरी की तरह पवित्र एवं विख्यात हो जाय १२-५१ देवगण ऐसा ही हो, कहकर उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर अन्तहित हो गये । गय विविध भोगों का उपभोग कर विष्णुलोक को प्राप्त हुआ। कालान्तर में विशाला नगरी में विशाल नाम से एक राजा हुआ । उसे कोई सन्तान नहीं थी । ब्राह्मणों से पूछा कि मुझे पुत्रादि की प्राप्ति किस प्रकार होगी ? ब्राह्मणों ने कहा - राजन् ! गया में पिण्डदान करने से आपको सन्तति की प्राप्ति होगी । राजा विशाल भी गयाशिर में पिण्डदान करके पुत्रवान् हुआ |६-८ आकाश में उसने रक्तवर्णं, श्वेतवर्ण स्थिता गयायामन्नादिपर्वताः पञ्चविंशतिः । प्रशंसन्ति द्विजास्तत्र देशे देशे सुपूजिताः ||३ दानातिशयमालोक्य सर्वे विष्ण्वादयः सुराः । संतुष्टा गयराजानं वरान्ब्रूहीति चाब्रुवन् ॥४ नैव पूर्वं केऽप्यकुर्वन्न करिष्यन्ति चापरे । इति । ११३१ ॥२ ॥३

  • भवन्तु ऋतुपूजिता इत्यनन्तरं ख पुस्तकेऽतिरिक्ताः कतिपयश्लोकाः सन्ति ते यथा -

गया श्राद्धविधानाय द्विजा मूर्ताश्चतुर्दंश । तेषां वाक्यं प्रकुर्वीत यदि ब्रह्मा स्वयं भवेत् ॥१ गौतमं काश्यपं कौत्सं कौशिकं कण्वमेव च । भारद्वाजं ह्योशनसं वात्स्यं पाराशरं तथा ॥२ हरित्कुमारमाण्डव्यं लोकाक्षि लोकसंमहत् । वाशिष्ठं च तथाऽऽत्रेयं गोत्राण्येषां चतुर्दश || इति । + इदमर्थं चास्ति ख. पुस्तके । "