पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१३०

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पञ्चदशोऽध्यायः १११ ।।११ अपः पुनः सकृत्प्राश्य याचस्य हृदयं स्पृशेत् । ॐ प्राणानां ग्रन्थिरस्यात्मा रुद्रो ह्यात्मा विशान्तकः। । स रुद्रो ह्यात्मनः प्राणा एवमाप्याययेत्स्वयम् । त्वं देवानामपि ज्येष्ठ उग्रस्त्वं चतुरो वृषा ॥१० मृत्युघ्नोऽसि त्वमस्मभ्यं भद्रमेतद्भुतं हविः । एवं हृदयमलभ्य पादाङ्गुष्ठे तु दक्षिणे विश्राव्य दक्षिणं पाणि नाभि वै पाणिना स्पृशेत् । ततःपुनरुपस्पृश्य चाऽऽत्मानमभिसंस्पृशेत् १२ अक्षिणी नासिका श्रोत्रं हृदयं शिर एव च। द्वावात्मानावुभावेतौ प्रणापानावुदाहृतौ ॥१३ तयोः प्राणोऽन्तरात्माऽस्य बाह्योऽपानोऽत उच्यते । अन्नं प्राणस्तथाऽपानं मृत्युर्जीवितमेव च ॥१४ अन्नं ब्रह्म च विज्ञेयं प्रजानां प्रसवस्तथा। अन्नाद्भूतानि जायन्ते स्थितिरन्नेन चेष्यते ॥१५ वर्धन्ते तेन भूतानि तस्मादन्नं तदुच्यते । तदेवाग्नौ हुतं ह्यन्नं भुञ्जते देवदानवाः गन्धर्वयक्षरक्षांसि पिशाचाश्वान्नमेव हि । ।।१६ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते पाशुपतयोगनिरूपणं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ।१५। t. भोजन करे ॥४-८। एक बार जल पिये, तीन बार आचमन करे और हृदय का भी स्पर्श करे । मन्त्र यह है "आत्मा ही प्राण की ग्रन्यि है और सर्वसंहरी रुद्र ही आरमा हैं ।€। वे ही रुद्र हमारे प्राण को स्वयं तृप्त करें। देवों में ज्येष्ठ हैं, उग्र हैं, चतुर वृषवाहन हैं। आप हमारी मृत्यु के निवारक हों। यह हवन की आप गई हवि कल्याणकारक हो"। इस प्रकार हृदय का स्पर्श करे। दाहिने पैर के अंगूठे को दाहिने हाथ से छुआ दे १०-१५। फिर हाथ से नाभि को छुये और आचमन करके आत्मा का स्पर्श करे। दोनों आंख, दोनों कान, नाकहृदय और सिर का भी स्पर्श करे । प्राण और अपान दोनों ही आत्मा कहे गये है ।१२-१३॥ , उनमें प्राण अन्तररमा है और अपान बहिरात्मा । अन्न ही प्राण और अपान है और अन्नाभाव ही जीवों के लिये मृत्यु है। अन्न ही ब्रह्म और प्रजाओं का सृष्टिमूल है । अन्न से ही भूतसमूह उत्पन्न होते है और अन्न है. द्वारा ही उनका पालन होता है । सकल जीव अन्न से ही वृद्धि पाते हैं; इसलिये यह अन्न कहा जाता है । देव, व दानव, गन्धर्व, राक्षस, यक्ष, पिशाचादि अग्नि में हुत अन्न को ही खाते हैं ।१४.१६।। | श्री वायुमहापुराण का पाशुपतयोगनिरूपण नामक पन्द्रहव अध्याय समाप्त ॥१५॥

  • इदमर्थं नास्ति ख- घ पुस्तकयोः।