पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१३१

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११२ अथ षोडशोऽध्यायः शैौत्रारक्षणनिरूपणम् वायुरुवाच अत ऊध्र्वं प्रवक्ष्यामि शौचाचारस्य लक्षणम् । यदनुष्ठाय शुद्धात्मा प्रेत्य स्वर्ग हि चाऽऽप्नुयात् ॥१ उदकार्थी तु शौचानां मुनीनामुत्तमं पदम् । यस्तु तेष्वप्रमत्तः स्यान्स मुनिर्नावसीदति २ मानावमानौ द्वावेतौ तावेवाऽऽहुवषामृते । अवमानं विषं तत्र मानस्त्वमृतमुच्यते ॥३ यस्तु तेष्वप्रमत्तः स्यात्स मुनिर्नावसीदति । गुरोः प्रियहिते युक्तः स तु संवत्सरं वसेत् ॥४ नियमेष्वप्रमत्तस्तु यमेषु च सदा भवेत् । प्राप्यानुज्ञां ततश्चैव ज्ञानागमनमुत्तमम् ५ अविरोधेन धर्मस्य विचरेत्पृथिवीमिमाम् । चक्षुष्ठपूतं व्रजेन्मार्गे वस्त्रपूतं जलं पिवेत् ॥६ सत्यपूतां वदेद्वाणोमिति धर्मानुशासनम् ’ आतिथ्यं श्रद्धयज्ञेषु न गच्छेद्योगवित्क्वचित् ॥७॥ एवं ह्यहिंसको योगी भवेदिति विचारणा । वह् विधूमे व्यङ्गारे सर्वस्मिन्भुक्तवज्जने ॥८ अध्याय १६ शौचाचार लक्षण निरूपण वायु बोले—इसके आगे अब हम चाचार का लक्षण कहते हैं, जिसके अनुष्ठान से जीव शुद्धारमा होकर स्वर्गं प्राप्त करता है ।१। शुद्धता की अभिलाषा करने वाले मुनियों के लिये जल सबसे उत्तम है । जो मुनि इसमें आलस्य नही दिखाते हैं, उन्हे कभी भी विषाद नही होता है। मान और अपमान दोनों ही विष और अमृत कहे गये हैं । उनमे अपमान विष है और मान अमृत ॥२-३। इसमें भी जो मुनि आलस्य नही दिखाते है, उन्हें कभी भी विषाद नहीं होता है। गुरु के प्रियतर कार्य को करने वाला मुनि सर्वदा सुखपूर्वक रहता है ।४। यम और नियम का जो सदा पालन क ते है और गुरु की आज्ञा लेकर उत्तम ज्ञान का अनुगमन करते है, वे धर्मानुकूल कार्य को करते हुये पृथ्वी पर विचरण करते हैं । आंख से देखकर राह में चलना चाहिये, कपड़े से छानकर जल पीना चाहिये और सरय से शुद्ध कर वचनो का उच्चारण करना चाहिये। यही धर्मशास्त्र की आज्ञा है । योगी किसी भी श्राद्ध यज्ञ । में आतिथ्य स्वीकार न करे, और