पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१३४

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सप्तदशोऽध्यायः ११५ अथ सप्तदशोऽध्यायः परनाञ्जनविधिर्कथनम् वायुरुवाच आश्रमत्रयमुत्सृज्य प्राप्तस्तु परमाश्रमम् । अतः संवत्सरस्यान्ते प्राप्य ज्ञानमनुतमम् १ अनुज्ञाप्य गुरुं चैव विचरेत्पृथिवीमिमाम् । सारभूतमुपासीत ज्ञानं यज्ज्ञेयसाधकम् २ इदं ज्ञानमिदं ज्ञेयमिति यस्तृषितश्चरेत् । अपि कल्पसहस्रायुर्नाव ज्ञेयमवाप्नुयात् ३ त्यक्तसङ्गे जितक्रोधो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः। पिधाय बुद्धया द्वाराणि ध्याने हाव मनो दधेत् ॥४ शून्येष्वेवावकाशेषु गुहासु च वने तथा । नदीनां पुलिने चैव नित्यं युक्तः सदा भवेत् ५ वाग्दण्डः कर्मदण्डश्च मनोदण्डश्च ते त्रयः । यस्यैते नियता दण्डाः स त्रिदण्डी व्यवस्थितः अवस्थितो ध्यानरतिजितेन्द्रियः शुभाशुभे हित्य च कर्मणी उभे इदं शरीरं प्रविमुच्य शास्त्रतो न जायते म्रियते वा कदाचित् द इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते परमाश्रमविधिकथनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ।।१७। ६ ७ अध्याय १७ परमाश्रम-विधि कथन वाय बोले-संवत्सर के (आयु) अन्तिम भाग में गुरु की आज्ञा से उत्तम ज्ञान प्राप्त कर तीनों आश्रमों का परित्याग कर चौथे आश्रम में प्रवेश करे और ब्रह्म-प्राप्ति में सहायक सारभूत ज्ञान की उपासना करता हुआ पृथ्वी में विचरण करे ॥१-२। जो तृषित होकर यह जानने की चेष्टा करता है कि यह ज्ञान है और यह ज्ञेय है, वह हजारं कल्पों में भी भय को प्राप्त नहीं करता है । स ङ्गहीन होकर, क्रोफे को जीतकर, थोड़ा भोजन कर जितेन्द्रिय बुद्धि योग से समस्त इन्द्रिय द्वार को बंन्दकर ध्यान मे मन को निवेश करे ॥३-४ ऊपर से खुले हुए शून्य स्थान में, गुफा में, जगल में और नदियों की बालुकाराशि परं नियत रूप से योगानुष्ठान करे । वाग्दण्ड, कमंडण्ड औरं मनोदण्ड स्वरूप तीन दण्ड हैं । जिनके पास ये तीनों दण्ड हैं, वे त्रिदण्डी कहलाते हैं । ध्याननिष्ठ जितेन्द्रिय मनुष्य शास्त्र'नुकूल विधि का पालन और शुभाशुभ कर्मों का परित्याग कर अगर शरीर छोड़ते है तो फिर उनका जन्म-मरण नहीं होता है |५-८॥ श्री वायुपुराण में परमाश्रम विधि कथन नामक सत्रहवाँ अध्याय समाप्त u१७ कां