पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१३७

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११८ एकान्नं मधु मांसं वा ह्यामश्राद्धं तथैव च । अभोज्यानि यतीनां च प्रत्यक्षलवणानि च ॥२० एकंकातिक्रमे तेषां प्रायश्चित्तं विधीयते)। प्राजापत्येन छ ण ततः पापात्प्रमुच्यते ॥२१ व्यतिक्रमाच्च ये केचिद्वाङ्मनःकायसंभवम् । सद्भिः सह विनिश्चित्य यद्युस्तत्समाचरेत् ॥२२ विशुद्धबुद्धिः समलोष्टकाञ्चनः समस्तभूतेषु चरन्समाहितः । स्थानं भुवं शाश्वतमव्ययं सतां परं स गत्वा न पुर्नाह जायते २३ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते यतिप्रायश्चित्तविधकथनं नामाष्टदशोऽध्यायः ।।१८।। किसी दूसरी वस्तु को मिलाये कोई एक अन्न, मधु, मांस, आम श्राद्ध और अधिक नमक खाना पतियों के लिये वजत है ।२०। इनमें एक का भी अगर यति सेवन कर ले, तो उसे प्रायश्चित्त करना होगा । कुछ प्राजापत्य के द्वारा वह पाप से मुक्त होगा । मन, वचन और शरीर के द्वारा जो कुछ पाप हो जाय, उसके प्रायश्चित्त के लिये सज्जन से निश्चय करे और वे जो कहें, वही करे। विशुद्ध बुद्धि मिट्टी को रोड़े और सोने को समान समझनेवाला एवं सब जीवों पर दया करने वाला व्यक्ति निश्चलअविनाशी ओर सर्वकालीन उस स्थान को प्राप्त करता है, जहाँ से जाकर वह फिर कभी नहीं लौटता ।२१-२३॥ श्रीवायुमहपुराण का यति प्रायदिचत्त-विधान कथन नाम अठारहवाँ अध्याय समाप्त १८