पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१८४

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१६५ १४० शत्र विक्रमतस्तस्य पद्भ्यामस्यन्तपीडिताः । उभूतास्तूर्णमाकाशे पृथुलास्तोयविन्दवः । अत्युष्णाघ्रातिशीताव वायुस्तत्र ववौ भृशम्। ३७ तद्दृष्ट्वा महदाश्चर्यं ब्रह्मा विष्णुमभाषत । अब्बिन्दवो हि स्थूलोष्णः कम्पते चाम्बुजं भृशम् । एतं मे संशयं ब्रूहि किचस्यत्वं चिकीर्षसि ।।३८ एतदेवंविधं वाक्यं पितामहमुखोद्भवम् । श्रुत्वाऽप्रतिमऽऽह भगवनसुरान्तकृत् ३६ किं नु खल्वत्र से नाभ्यां भूतमस्यत्कृतालयम् । वदति प्रियमत्यर्थ विप्रियेऽपि च ते मया इत्येवं मनसा ध्यात्वा प्रत्युवाचेदमुत्तरम् । कि न्वत्र भगवांस्तस्मिन्पुष्करे जातसंभ्रमः ॥४१ किं मया यत्कृतं देव यन्मां प्रियमनुत्तमम् । भाषसे पुरुषश्रेष्ठ किमर्थं ब्रूहि तत्त्वतः ४२ एवं ब्रुवाणं देवेशं लोकमात्रां तु तत्त्वगास् । प्रत्युवाचाम्बुजाभास्कः अह्मा वेदनिधिः प्रभुः ॥४३ योऽसौं तबोदरं पूर्वं प्रविष्टोऽहं त्वदिच्छया । यथा ममोदरे लोकाः सर्वे दृष्टस्त्वया प्रभो । तथैव दृष्टः कात्स्यैन मया लोकास्तवोदरे ततो वर्षसहस्रान्त उपावृत्तस्य मेऽनघ । नूनं मत्सरभावेन मां वशीकर्तुमिच्छता । आशु द्वाराणि सर्वाणि घटितानि त्वया पुनः ४५ ततो मया सहभाग संचिन्त्य स्वेन चेतसा । लब्धो नाभ्यां प्रवेशस्तु पसूत्राद्विनिर्गमः ४६ ॥४४ खोलते हुये और अत्यन्त शीतल बड़ेबड़े जल विन्दु आकाश की तरफ उड़ने लगे तथा वायु भी जोर से बहने लगो ।३७। यह देखकर ब्रह्मा को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने विष्णु से कहा-जलबिन्दु स्थूल ओर उष्ण हो गये है, जिससे कमल काँप रहा है । हमारे मन में सन्देह हो रहा है , यह क्या किआप करना चाह रहे है ।” ।३८पितामह के मुख से निकली इस तरह की वाणो सुनकर असुरविनाशी और अनुपम कार्यकर्ता भगवान् विष्णु ने कहा-क्या, मेरी नाभि में दूसरे जीव ने आकर आश्रय ग्रहण किया है ? ब्रह्मा ! मैंने आपके प्रति अनुचित व्यवहार किया है फिर भी आप हमारे प्रति सुन्दर वचन कह रहे है । इस तरह मन में ध्यान कर उन्होंने फिर कहा—वया आपको इस कमल के सम्बन्ध में कुछ सन्देह हो गया है ? पुरुषश्रेष्ठ ! मैने क्या है, जो आप इस तरह प्रिय और उत्तम वचन मुझसे कह रहे हैं, यह आप किया कहें । लोकयात्रा के तत्स्वगामी देवेश विष्णु के कहने पर कमलनिवासी वेदनिधि प्रभु ब्रह्मा ने उत्तर दिया-1३४-४३। हे प्रभु ! इसके पहले मैंने ही आपकी इच्छा से आपके उदर में प्रवेश किया था और आपने जिस प्रकार हमारे उदर में सब लोकों को देखा था, उसी प्रकार मैंने भी आपके उदर में सम्पूर्ण लोकों को देख ।४४। हे निष्पाप ! हजार वर्ष के बाद जब हम बाहर आने लगे, तव आपने मात्सर्य से शीघ्र सब इद्रियद्वारों को बन्द कर दिया था । आप हमें वशीभूत करना चाहते थे । हे महाभाग ! अपने तव