पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२३९

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

२२० महेश्वर उवाच दक्षो नाम महाभागे प्रजानां पतिरुत्तमः। हयमेधेन यजते तत्र यान्ति दिवौकसः ।।११० वर्च १११ यज्ञमेतं महाभाग किमर्थं न गतोऽसि वै। केन वा प्रतिषेधेन गमनं प्रतिषिध्यते महेश्वर उवाच सुरैरेव महाभागे सर्वमेतदनुष्ठितम् । यज्ञेषु मम सर्वेषु न भाग उपकल्पितः पूर्वोपायोपपन्नेन मार्गेण वरणनि । न मे सुराः प्रयच्छन्ति भागं यज्ञस्य धीमतः ११२ ११३ ११४ देव्युवाच भगवन्सर्वदेवेषु प्रभावाभ्यधिको गुणैः । अजेयश्चाप्यधष्यश्च तेजस ॥ यशसा श्रिया अनेन तु महाभाग प्रतिषेधेन भागतः। अतोव दुःखमापन्ना वेपथुश्च समानघ कि नाम दानं नियमं तपो वा कुर्यामहं येन पतिर्ममाद्य । लभेत भागं भगवानचिन्त्यो यज्ञस्यं चर्घमथ वा तृतीयम् ११५ ११६ महदेव बोले-महाभागे ! दक्ष नामक एक उत्तम प्रजापति हैं, वे ही अश्वमेघ यज्ञ कर रहे हैं । वह ये देवगण जा रहे है ।११०। देबी बोली -महाभाग ! इस यज्ञ मे आप क्यो नही गये ? किसलिये आप को वह नही बुलाया गया है ? ॥१११॥ महादेव बोले- महाभागे ! देवो ने ही यह सब किया है कि, किसी भी ऍक्ष में हमारे लिये भाग नहीं रखा जाय । वरवणनि ! उसी पूर्वे व्यवस्था के अनुसार विद्वान् देवगण हमे यज्ञ में भाग नहीं देते हैं (११२-११३॥ देवी बोली–अनघ ! भगवन् ! सभी देवों में आपका अधिक प्रभाव है, आप अधिक गुणवान् भी हैं । यही वयौ, तेज यश और शोभा की अधिकता से आप अजेय और अधृष्य है । अतः महाभाग ! आप का जो यह तिरस्कार हुआ है, इससे मुझे वहुत दुःख हुआ है, मेरा शरीर कांप रहा है ।११४-११५ । मैं फौन सा दान, नियम या तप कहें, जिससे मेरे अचिन्तनीय भाग्यवान् पति यज्ञ में आधा अथवा तृतीय भाग