पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२७७

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२५८ गयस्य तु नरः पुत्रो नरस्यापि सुतो विराट् । विराट्सुतो महावीर्यो धीमांस्तस्य सुतोऽभवत् ॥५८ धीमतश्च सहान्पुत्रो महतश्चापि भौवनः। भौवनस्य सुतस्त्वष्टा अरिजस्तस्य चाऽऽत्मजः ॥।५e अरिजस्य रजः पुत्रः शतजिद्रजसो मतः। तस्य पुत्रशतं त्वासीद्राजानः सर्व एव ते ६० विश्वज्योतिष्प्रधाना यैस्तैरिमा वधिताः प्रजाः । तैरिदं भारतं वर्षे (*सप्तखण्डं कृतं पुरा ।।६१ तेषां वंशप्रसूतैस्तु भुक्तेयं भारती धरा । कृतत्रेतादियुक्तानि युगाख्यानेकसप्ततिः 1.६२ येऽतीतास्तैर्युगैः सार्ध राजानस्ते तदन्वयः । स्वायंभुवेऽन्तरे पूर्व) शतशोऽथ सहस्रशः एष स्वायंभुवः सर्गो येनेदं पूरितं जगत । ऋषिभिर्दैवतैश्चापि पितृगन्धर्वराक्षसैः ॥६४ यक्षभूतपिशाचैश्च मनुष्यमृगपक्षिभिः । तेषां सृष्टिरियं लोके युगैः सह विवर्तते ६५ ६३ इति महापुराणे वायुप्रोक्ते स्वायंभुववंशानुकीर्तनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ।।३३।। विराट् विराट् को महावीर्यं, महवीर्य को धीमान्, धीमान् को महान्महान् को । भवन, भवन को त्वष्टा, त्वष्टा को अरिज, अरिज को रजस, रजस को शतजित् और शतजित् को सो राजा पुत्र हुये ॥५६-६० संसार भर में अपनी कीति को फैलाने वाले उन राजाओं ने यहाँ की प्रजाओ को समृद्ध किया और उन्होने ही भारतवर्ष को सात खण्डों में पहले विभक्त किया था । उन्ही के वंशजो द्वारा यह भारत भूमि कृत, त्रेता आदि इकहत्तर चौयुगी में उपभुक्त हुई है 1६१-६३ । पहले स्त्रयम्भुव मन्वन्तर के काल मे सहत्रों राजा गण जो उन युगों के साथ अतीत हो । गये हैं, वे भी उन्ही के वंशज थे । ऐसा स्वायम्भुव मनु का वंश-विस्तार है । ऋषियों, देवों, पितरों, गन्घव, राक्षसों, यज्ञ, भूत, पिशाचोंमनुष्यों, मृगों और पक्षियों के साथ उन्ही के वंशजों ने इस जगत् को पूर्ण किया है। संसार में उनकी यह सृष्टि युगों के साथ चलती रहेगी I६४-६५। श्रीवायुमहापुराण का स्वयम्भुव वंश-वर्णन नामक तेतीसच अध्याय समाप्त ।३३।

  • धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थः ङ. पुस्तके नास्ति ।