पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/३०२

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
अष्टत्रिंशोऽध्यायः

.२८३ तत्र कालस्य कर्तारं सहस्रांशं सुरोत्तमम् । सिद्धसंघा नसस्यन्ति सर्वलोकनमस्कृतम् ३२

पश्वकूटस्य शैलस्य कैलासस्यान्तरेण तु । षत्रशद्योजनायानं विस्तीर्णं शतयोजनम् ।।३३

क्षुद्रसत्त्वरनाधृष्यं सर्वतो हंसपाण्डुरम् । दुष्पारं सर्वसत्त्वानां दुर्गमं लोमहर्षणम् ।।३४

इत्येता ह्यन्तरद्रोण्यो दक्षिणे परिकीतिताः । यथानुपूर्वमखिलाः सिद्धसंघनिषेविताः ३५

पश्चिमायां दिशि तथा येऽन्तरद्रोणिविस्तरः । तान्वर्यमनांस्तत्त्वेन श्रुणुतेन्द्विजोतनाः ॥३६

अन्तराले गिरौ तस्मिन्सुवक्षः शिखिशैलयोः । समन्ताद्योजनशतमेकभूमं शिलातलम् ।।३७

नित्यतप्तं महाघोरं दुःस्पर्श रोमहर्षणम् । अगम्यं सर्वसत्त्वानामीश्वराणां सुदारुणम् ३८

मध्ये तस्यां शिलास्थल्यां त्रिंशद्योजनमण्डलम् । ज्वालासहस्रकलिलं वह्निस्थानं सुदारुणम् ॥३ं९

अनिन्धनस्तत्र सदा ज्वालामाली विभावसुः। ज्वलत्येष सदा देवः शश्वत्तत्र हुताशनः||४०

अधिदेवकृते योऽसावनेर्भागो विधीयते । स तत्र ध्वलते नित्यं लोकसंवर्तकोऽनलः ।।४१

अन्तरे शैलवरयोर्देवा वाऽपि तयोः शुभाः । मातुलुङ्गस्थली तत्र ह्यायाद्दशयोजना ।।४२

मधुव्यञ्जनसंस्थालैः सुरसैः कनकप्रभैः। फलैः परिणतैः सश्च शोभित सा महास्थली||४३

तत्राऽऽश्रमं सहपुण्यं सिद्धसंघनिषेवितम् । बृहस्पतेः प्रमुदितं सर्वकामगुणैर्युतम् ॥४४

के पूज्य भगवान् सूर्य देव को वहाँ सिद्धगण प्रणाम किया करते है । पंचकूट और कैलास शिखरों के बीच की वन भूमि सौ योजन लम्बी और तिरसठ योजन चौड़ी है । मामूली जीव वहाँ नहीं जा सकते है. सामान्य देह धारियों के लिये वह दुर्गम और भयङ्कर है । वहाँ की भूमि उज्ज्वल और पाण्डुर वर्ण को है। दक्षिण दिशा में स्यित, सिद्ध समूह द्वारा सेवित इतनी ही अन्तर द्रोणियाँ हैं जिनका हमने क्रमश: वर्णन कर दिया ।३२-३५॥ द्विज श्रेष्ठ ! अब पश्चिम दिशा में जो अन्तर द्रोणिय है और उनका जो विस्तार है. उनका हम भली भाँति वर्णन कर रहे हैं सुनिये ! सुवक्ष और शिखिशैल पर्वतों के मध्य एक शिला-खण्डमय भूमि है जिसकी परिधि स योजन की है, जो सर्वदा गर्म रहती है। महाभयङ्कर उस भूमि को छूते ही लोगो के रोगटे खड़े हो जाते है । सभी जीवों के लिये वह अगम्य तो है ही, समर्थों के लिये भी वह भयावह है ।३६-३८। उस शिलास्थली के बीच तीस योजन के घेरे में हजारों लपटों को फेकनेवाले अग्नि देव को एक भयङ्कर स्थान है । विना इन्खन के ही वहाँ शिखाणाली विभावसु अग्निदेत्र सदा जलते रहते है। देवता के निमित्त जिस अग्नि को भाग दिया जाता है, वे ही लोक संबतं क अग्निदेव वहाँ सदा 'जलते रहते है ।३६-४१ । देवपि भर गय नामक श्रेष्ठ पर्वतों के बीच दस योजन की एक माजुसँग स्थली है । मधुमय सुरस तथा सुवर्ण व्यञ्जन से और सदृश पके हुये फलों से वह वनस्थली सर्वत्र सुशोभित है ।४२-४३1 वहाँ वृहस्पति का एक महापवित्र आश्रम है, जो । सिद्धसमूह से भरा हुआ, सुखद और सभो कामनाओं को सिद्ध करनेवाल है । उसी प्रकार तुमुद और