पितृदौहित्रनिर्देशो देवानां जन्म चाच्यते । विस्तरस्ते भगवतः पञ्चानां सुमहात्मनाम् ।।१४०
इलाया विस्तरश्चोक्त आदित्यस्य ततः परम् । विकुक्षिचरितं चोक्त धुन्धोश्चैवनिबर्हणम्।।१४१
इवलान्तसंक्षेपादिक्ष्वाकाद्याः प्रकीर्तिताः । निम्यादीनां क्षितीशानां यावज्जतु गणति ॥
कीर्यते विस्तरो यश्च ययातेरपि भूपतेः । यदुवंशसमुद्देशो हैहयस्य च विस्तरः ।।१४३
क्रोष्टोरनन्तरं चोक्तस्तथा वंशस्य विस्तरः। ज्यामघस्य च महात्म्यं प्रजासर्गश्च कीर्यते ।१४४
देवावृधस्य त्वङ्गस्य वृष्णेश्चैव महात्मनः। (*अनांभेयान्वयश्चैव विष्[*र्दिव्या भशंसनम् ॥१४५
विवस्वतोऽथ संप्राप्तिर्मणिरत्नस्य धीमतः । युधाजितः प्रजासर्गाः कीर्यते च महत्मनः)॥१४६
कीर्यते चान्वयः श्रीमान्राजर्षेर्देवोडुपः । पुनश्च जन्म चाप्युक्तं चरितं च महात्मनः] ।।१४७
कंसस्य चापि दौरात्म्यमेकान्तेन समुद्भवः। वासुदेवस्य देवक्यां विष्णोर्जन्म प्रजापतेः ।।१४८
विष्णोरनन्तरं चापि प्रजासर्गोपवर्णनम्। देवासुरे समुत्पन्ने विष्णुना स्त्रीवधे कृते ।१४८
संरक्षता शक्रवधं शापः प्राप्तः पुरा भृगोः । भृगोश्चोत्थापयामास दिव्यां शुक्रस्य मातरम् ।१५०
देवानामसुराणां च साभाद्धदशाद्भुताः । नारसिंहप्रभृतयः कीर्यन्ते प्राणनाशनाः ॥१५१
शुक्रेणऽऽराधनं स्थाणोधरेण तपसा कृतम् । वरदानप्रलुब्धेन यत्र शर्वस्तवः कृतः ।।१५२
लोक प्रतिष्ठित है ।१३८देवताओं के पिता और दौहित्र बताये गये हैं । तथा देवो को उत्पत्ति, पाँचों महत्माओं और भगवद्भक्त तुम्हारे जन्म का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इला का वर्णन फिर आदित्य का तब विकुक्षि का चरित और धुन्धु का विनाश है। संक्षेप में, एवं इक्ष्वाकु से लेकर वृहद्दल पर्यन्त तथा निमि से लेकर जलं, गण तक राजाओं का, नृपति ययाति एवं यदुवंश तथा हैहयवंश का विस्तार है । इसके अनन्तर क्रोष्टा के वंश का विस्तार तथा ज्यामघ का महात्म्य एवं उनके प्रजासर्गों का वर्णन है । देववृध' अर्को महात्मा वृष्णि के वंश तथा विष्णु का दिव्य वर्णन है। महामति विवस्वान् को मणिरत्न की प्राप्ति तथा महात्मा युधाजित को प्रजासर्ग कहा गया है । श्रीमान् राजfष देवमीळ्हुष के जन्म, चरित और वंश का वर्णन है । कंस की अत्यन्त दुष्टता तथा प्रजापति वसुदेव से विष्णु वासुदेव का देवकी के गर्भ से जन्म लेने का कथन है ।१४०-१४८। तदनन्तर विष्णु के प्रजा-सर्ग का वर्णन तथा देवासुर के उत्पन्न होने पर विष्णु को स्त्रीवध करके शक्र की प्राण रक्षा करने पर भृगु शाप का मिलना तथा भृगु का शुक्र की दिव्य माता को उठाना वfणत है ।१४९-१५०॥ देवताओं और असुरों के बारह विचित्र नारसिह आदि प्राणनाशक संग्रामों का वर्णन है । धीर शुक्र ने तपस्या द्वारा शिव को अराधना तथा वरदान के लोभ से उनकी स्तुति की । तदनन्तर देवताओं और असुरों
- धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति । + धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थो ग. पुस्तके नास्ति ।