पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/३३७

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३१८ वायुपुराणम् अथ पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः भुवनविन्याः शांशपायन उवाच पूर्वापरौ समाख्यातौ द्वौ देश नस्त्वया प्रभो । उत्तराणां च वर्षाणां दक्षिणानां च सर्वशः । आचक्ष्व नो यथातथ्यं ये च पर्वतवासिनः १ २ ३ सूत उवाच दक्षिणेन तु श्वेतस्य नीलस्यैवोत्तरेण तु । वर्ष रमणकं नाम जायन्ते तत्र मानवाः सर्वर्तुकामदाः सत्त्वा जरादुर्गन्धर्वाजताः । शुक्लभिजनसंपन्नाः सर्वे च प्रियदर्शनाः तत्रापि सुमहादिव्यो न्यग्रोधो रोहिणो महान् । तस्य पीत्वा फलरसं पियन्तो वर्तयन्युत दश वर्षसहस्राणि शतानि दश पञ्च च । जीवन्ति ते महाभागः सदा हृष्टा नरोत्तमाः उत्तरेण तु श्वेतस्य शृङ्गसाह्वस्य दक्षिणं । वर्ष हिरण्वतं नाम यत्र हैरण्वती नदी ४ ५ ॥६ अध्याय ४५ भुवन विन्यास शांशपायन बोले—है महाराज ! आपने पूर्वी और पश्चिम दिशा के दो देशों का वर्णन किया । अव उत्तर तथा दक्षिण दिशा के देशो का और वहाँ के पर्वतों पर रहने वाले लोगों को क्रमशः पूर्णरूप से वर्णन कीजिये ॥१॥ सूतजी बोले-श्वेत पर्वत के दक्षिण " और नील पर्वत के उत्तर रमणक नामक एक देश है। वहां जो मनुष्य उत्पन्न होते हैं वे सभी अनुकूल कामफल का उपयोग करते हैं। वे बेड़े नही होते न तो शरीर उनके से दुर्गन्ध निकलती है। उनका परिवार भी विशुद्ध होता और वे स्वयं सुन्दर होते हैं ।२-३ वह रोहि नाम् एक महान् और दिव्यं वट वृक्ष है, जिसके फलों के रस को पीकर वहाँ के निवासी जीवन धारण करते हैं । वे महाभाग्यशाली नरश्रेष्ठ सदा प्रसन्न रहते है और दस हजार दस स पॉच वर्ष की आयु के होते है ।४५॥ श्वेताचल के उत्तर और श्रृंगाचल के दक्षिण हिरण्वत नामक एक देश है, जहाँ हैरण्वती नदी बहती है । वह