पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/३५२

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षट्चत्वारिंशोऽध्यायः ३३३ तस्य नाम्ना समाख्यातो जम्बूद्वीपे वनस्पतिः । योजनानां सहस्त्रं तु शत चान्यमहाद्रुमः । उत्सेधो वृक्षराजस्य दिवं स्पृशति सर्वशः २५ अरत्नीनां शतान्यष्टकषष्ट्यधिकानि तु । फलप्रमाणे संख्यातमृषिभिस्तत्त्वदशभिः २६ पतमानानि तानुव् कुर्वन्ति विपुलं स्वनम् । तस्या जम्ब्वाः फलरसो नदीभूय प्रसर्पति २७ मेरुं प्रदक्षिणीकृत्य जम्बूवृक्ष विशत्यधः । ते पिबन्ति सदा हृष्टा जम्बूरसफलावृताः २८ जम्बूरसफलं पीत्वा न जरां प्राप्नुवन्ति ते । न क्रोधं न च रोगं तु न च मृत्यु तथाविधम् ।२e तत्र जाम्बूनदं नाम कनकं देवभूषणम् । इन्द्रगोपकसंकाशं जायते भास्वरं तु तत् ३० सर्वेषां वर्षवृक्षाणां शुभः फलरसस्तु सः। स्कन्नं भवति तच्छूनं कनकं देवमूषणम् ३१ तषां सूत्रं पुरीषं च दिक्षु सर्वासु भागशः । इश्वरानुग्रहाद्भूमिमुं तांश्च ग्रसते तु तान् रक्षःपिशाचा यक्षाश्च सर्वे हैमवताः स्मृतः। हेमकूटे तु गन्धर्वा विज्ञेयाः साप्सरोगणाः ३३ सर्वे नागास्तु निषधे शेषवासुकितक्षकः। महमेरौ त्रयस्त्रशभ्रमन्ते यज्ञियाः सुराः । नीले तु वैडूर्यमये सिद्धब्रह्मर्षयोऽमलाः ३४ दैत्यानां दानवानां च श्वेतपर्वत उच्यते । शुङ्गवान्पर्वतः श्रेष्ठः पितृणां प्रतिसंचरः ३५ ३२ लगे रहूने है और सिद्ध चरण उसकी सेवा किया करते हैं । उसी के नामानुसार जम्बूद्वीप में एक विशाल वनस्पति है । वह महावृक्ष सौ हजार योजन का है । उसका शिखर स्वर्ग को स्पर्श करता है ।२४२५ तत्त्वदर्शी ऋषिगण कहते हैं कि इस वृक्ष के प्रत्येक फल का प्रमाण आठ सौ आठ अरन्ति है । ये फल पृथ्वीतल पर गिर कर महान् शब्द उत्पन्न करते है और उनका रस नदी बनकर बह निकलता है।२६-२७| यह नदी मेरु की प्रदक्षिणा कर फिर उसी वृक्ष के मूल देश में प्रवेश कर जाती है । वह बाले प्रसन्न होकर जामुन के फल और रस को पिया करते है । उस रस को पाने के कारण वे कभी वृद्ध नहीं होते हैं यही क्यों रोग, क्रोध और मृत्यु भी उन्हें प्राप्त नहीं होती है ।२८-२६। देवों के भूषणयोग्य जाम्बूनद नाम का सुवर्ण है, जो इन्द्रगोष कीट की तरह चमकीला होता है । उन सभी वृक्षों का शुभ फल रस शुक्र रूप में क्षरित होकर देव भूषणोचित सुवर्ण बन जात है । उनका मूत्र और पुरीष भी विभागक्रम से सभी दिशाओं में विखर जाता है । ईश्वर की कृप से भूमि उस मृतिका को ग्रस लेती है ।३०३२रक्ष, पिचाश और यक्षगण हिमालय पर, गन्धर्व और अप्सराएँ हेमकूट पर एवं शेष वासुकि, रक्षकप्रभृति समस्त नाग निषघाचल पर स्थित हैं । तैतीस याज्ञिक सुरगण महामेरु के ऊपर भ्रमण करते हैं । वैडूर्यमय नीलाचल पर सिद्ध अष और सिद्ध लोग रहते हैं ।३३-३४ देत्य और दानवों के लिये श्वेत पर्वत नियत किया गया है। श्रेष्ठ शुङ्गवान् पर्वत पितरों का भ्रमणस्यान है ।