अदृश्यन्त्यां समभवन्मुनिर्यत्र पराशरः । पराभवो वशिष्ठस्य यस्मिआतेऽप्यवर्तत ।१२
तत्र त ईजिरे सत्रं नैमिषे ब्रह्मवादिनः । नेमिषक ईजिरे यत्र नैमिषेयास्ततः स्मृतः ॥१३
तत्सत्रमभवत्तेषां समा द्वादश धीमताम् । पुरूरवसि विक्रान्ते प्रशासति वसुंधराम् ॥१४
अष्टादशसमुद्रस्य द्वीपानझम्पुरूरवः । तुतोष नैव रत्नानां लोभादिति हि नः श्रुतम् ।१५
उर्वशी चकमे यं च देवहूतेप्रणोदिता । आजहार च तत्सर्वं स्वधैश्यासहसंगतः ॥१६
तस्मिन्नरपतौ सत्रं नैमिषेयाः प्रचक्रिरे। यं गर्भ दुषुवे गङ्गा पावकाद्दीप्ततेजसम् ॥१७
तदुल्बं पर्वते न्यस्तं हिरण्यं प्रत्यपद्यत । हिरण्मयं ततश्चक्रे. यज्ञवाटं महात्मनाम् ॥१८
विश्वकर्मा स्वयं देवो भावउँल्लोकभावनम् । बृहस्पतिस्ततस्तत्र तेषाममिततेजसाम् ॥१६
ऐडः पुरूरवा भेजे तं देशं मृगयां चरन् । तं. दृष्ट्वा महदाश्चर्यं यज्ञवाटं. हिरण्मयम् ।।२०
लोभेन हतविज्ञानस्तददतुं . प्रचक्रमे । नैमिषेयास्ततस्तस्य चुक्रुधुवु‘पतेभृशम् ।।२१
निजघ्नुश्चापि संक्रुद्धः कुशचजर्मनीषेणः। ततो निशान्ते राजानं मुनयो दैव नोंद्तः ।२२
कुशवब्रौर्विनिष्पिष्टः स राजा व्यजहातनुम्। और्वैशेयं ततस्तस्य पुत्रं चतुर्युपे क्षु।वे ॥२३
नहुषस्य महात्मानं पितरं यं । प्रचक्षते । स तेषु वर्तते सम्यग्धर्मशीलो महीपतः ॥२४ ॥
वेर हुआ, जहाँ अदृश्यन्ती में पराशर मुनि उत्पन्न हुये और जिनके जन्म लेने पर भी वशिष्ठ का पराभव बना रहा, वहां उस नैमिषक्षेत्र में उन ब्रह्मवादियों ने यज्ञ किया । अतएव वे ऋषि नैमिषेय कहे जाते हैं ।१०-१३॥ वहाँ पर उन महामति मुनियों का वह सत्र विक्रमशाली भूपाल पुरूरवा के शासन काल में बारह वर्ष तक हुआ । राजा पुरूरवा यद्यपि अठारह समुद्र के द्वीपों का उपभोग कर रहा था; किन्तु हमने सुना है कि रत्न के लोभ से वह सन्तुष्ट नही हुआ । देवहूति को प्रेरणा से उर्वशी ने उसका वरण किया और स्वर्ग की वेश्या के साथ उसने उस सत्र को नष्ट करने का प्रयत्न किया ।१४१६परन्तु उस नरपति के शासन काल मे ही नैमिषेयों ने सत्र सम्पन्न किया । प्रदीप्त तेज वाले पावक से गङ्गा ने जो गर्भ प्रसव किया उस उल्व को पर्वत पर रखा गया जो सोना हो गया । तब उन अतुल तेजस्वी महात्माओं को यज्ञशाला स्वयं वृहस्पति देव विश्वकर्मा ने भगवान् का स्मरण करके सोने की बना दी । एक दिन आखेट खेलते-खेलते ऐल पुरूरवा वहाँ पहुँचा और सोने की बनी उस यज्ञशाला , को देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । लोभ से उसकी बुद्धि मारी गई और उसने उसे लेना चाहा । तब नैमिषेय ऋषि राजा पर बहुत रुष्ट हुए और क्रोध में आकर दैववश उन मनीषी मुनियों ने उस राजा को रात बीतते-बीतते कुशवजों से मार डाला ११७२२। सुशवजों से चूर्ण , होकर महीपति ने शरीर छोड़ दिया । तव उर्वशी से उत्पन्न उसके पुत्र को पृथ्वी पर नरपति बनाया । उसी महात्मा को नहुष का पिता कहा जाता है। उस धर्मात्मा राजा ने उन ऋषियों के प्रति अच्छा बर्ताव किया उस राजा की आयु और