पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४११

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

३६२ वायुपुराणम् अथेमानि तु सूर्यस्य प्रत्यङ्गानि रथस्य तु । संवत्सरस्यावयवैः कम्पितानि यथाक्रमम् ५६ अहस्तु नाभिः सूर्यस्य एकचक्रुः स वै स्मृतः । अदः पञ्चर्तवस्तस्य नेमिः पर्धेतवः स्मृताः ६० रथनीडः स्मृतो ह्यब्दस्त्वयने कूबरावुभौ। मुहूर्ता वन्धुरास्तस्य शम्या तस्य कलाः स्मृताः ॥६१ तस्य काष्ठाः स्मृता घाणा ईपादण्डः क्षणास्तु वै । निमेषाननुकर्षोऽस्य ईषा चास्य लघाः स्मृताः ॥६२ रात्रिर्वरूथो धर्मोऽस्य ध्वज ऊध्र्वः समुच्छितः । युगाक्षकोटी ते तस्य अर्थकामावुभौ स्मृतौ ॥६३ सप्ताश्वरूपाच्छन्दांसि वहन्ते वामतो धुरम् । गायत्री चैव त्रिष्टुप्च अनुष्टुब्जगती तथा ।।६४ पङ्क्तिश्च बृहती चैव उष्णिक्चैव तु सप्तमम् । अक्षे चनं निबद्धं तु ध्रुवे त्वक्षः सर्वोपतः ॥६५ सहचनो भ्रमत्यक्षः सहक्षो भ्रमति ध्रुवः । अक्षः सहैव चक्रेण भ्रमतेऽसौ ध्रुवेरितः ६६ एवमर्थवशात्तस्य संनिवेशो रथस्य तु। तथा संयोगभागेन संसिद्धो भास्वरो रथः ६७ तेनास्तौ तरणिर्देवस्तरस पंते दिवि। युगाक्षकोटिसंबद्धौ रश्मी दृौ स्यन्दनस्य हि। ६८ ध्रुवेण भ्रमतो रश्मी विचनयुग्योस्तु वै। अमतो सण्डलानि स्युः खेचरस्य रथस्य तु ६६ युगाक्षकोडी ते तस्य दक्षिणे स्यन्दनस्य तु । ध्रुवेण संगृहोते वै द्विचनश्वेतरज्जुवत् भ्रमन्तमनुगच्छेतां ध्रुवं रश्मी तु तावुभौ । युगाक्षकोटी ते तस्य वातोर्मी स्यन्दनस्य तु ॥७१ ७० आकाशमार्ग में गमन करते है |५६-५८ । सूर्यरथ के जितने अवयव है, वे संवत्सर के अङ्गों द्वारा ययाक्रम कल्पित हुये है । सूर्य-रथ का नाभिस्थान दिन है । यही एक चक्र भी कहलाता है । पाँचों ऋतुएँ उसकी अराये है और छः ऋतुएं नेमि कही गई है ।५६-६० रथ का मध्य स्थान वर्ष, दोनों जुये अयन, वन्धुर मुहूतं , युगकील कला, घोणा वाकाष्ठा ईपादण्ड क्षण, अनुकर्ष मेप, ईपा लव, वरूय रात्रि, समुन्नत ध्वज धर्म युग और अक्षकोटि अर्थ तथा काम एवं गायत्री, त्रिष्टुप् , अनुष्टुप्, पक्ति, बृहती, जगती, उष्णिक् आदि सातों छन्द सप्ताश्व है । रथ के अक्ष मे चक्र मिला हुआ है और चक्र ध्रुव से मिला हुआ है, इसलिये अक्ष के साथ ही चक्र घूमता है और चक्र के साथ-हीसाथ ध्र व घूमा करता है ध्रुव की प्ररेणा से चक्र के साथ अक्ष भी घूमा करता है ।६१-६६। प्रयोजनवश सूय के रथ का इस प्रकार संघटन किया गया है । उस रथ का संघटन इस प्रकार किया गया है कि, उसमे अतिशय प्रभा आ गई है । उसी रथ के द्वारा सूर्य भगवान् वेग पूर्वक आकाश मे गमन करते है ।६७६६। रथ के युग और अक्षकोटि में इस प्रकार की दो किरणे जुड़ी हुई , .व द्वारा हैंजो श्र परिचालित होने पर आकश तल मे रथ को मण्डलाकार बना देती है । उस रथ के दक्षिण भाग म जा युगाक्षकोटि है, वह ध्रुव तु।रा संगृहीत या संलग्न होने पर उस तरह दीखती है, जैसे श्वेत तन्तुओ के दो चक्र हो। रथ की युगाक्षकोटि मे लगी हुई वे दोनो किरणे वायुमय है, जो घूमते हुये ध्रुव का अनुसरण करती