पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४३३

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४१४ वायुपुराणम् सर्वग्रहाणामेतेषामादिरादित्य उच्यते । ताराग्रहाणां शुक्रस्तु केतूनां चैव धूमवान् १११ ध्रुवः कीलो ग्रहाणां तु विभक्तानां चतुदशम् नक्षत्राणां श्रविष्ठा स्यादयनानां तथोत्तरम् ॥११२ वर्षाणां चापि पवनामाद्यः संवत्सरः स्मृतः । ऋतूनां शिशिरं चापि मासानां माघ एव च ॥११३ पक्षाणां शुक्लपक्षस्तु तिथीनां प्रतिपत्तथा । अहोरात्रविभागानामहश्चापि प्रकीतितम् ११४ मुहूर्तानां तथैवाऽऽदिमुहूर्ता रुद्रदैवतः । अक्ष्णोश्चापि निमेषादिः कालः कालविदो मतः ११५ अवणान्तं प्रविष्टदि युगं स्यात्पञ्चवषकम् । भानोर्गतिविशेषेण चक्रवत्परिवर्तते ॥११६ दिवाकरः स्मृतस्तस्मात्कालस्तं विद्धि चेश्वरम् । चतुविधानां भूतानां प्रवर्तकनिवर्तकः ।।११७ इत्येष ज्योतिषामेव संनिवेशोऽर्थनिश्चयात् । लोकसंव्यवहारार्थमीश्वरेण विनिमतः ।।११८ उत्पन्नः अषणेनासौ संक्षिप्तव ध्रुवे तथा । सर्वतोऽन्तेषु विस्तीर्णा वृत्ताकार इति स्थितिः ॥११६ बुद्धिपूर्वं भगवता कल्पादौ संप्रकीतितः। साश्रयः सोऽभिमानी च सर्वस्य ज्योतिषात्मकः । । विश्वरूपं प्रधानस्य परिणामोऽयमदभतः १२० नैव शक्यं प्रसंख्यातुं याथातथ्येन केनचित् । गतागतं मनुष्येषु ज्योतिषां मांसचक्षुषा ॥१२१ है ।१०८११०सभी ग्रहों में आदि ग्रह सूर्य कहे जाते है और तारा ग्रहों में आदि शुक है एवं केतु समस्त केतुग्रहों में आदि हैं । चारों दिशाओं में विभक्त ग्रहों के बीच कील स्वरूप श्र,व श्रेष्ठ है । नक्षत्रों के बीच श्रविष्ठा और अयनों में उत्तरायण श्रेष्ठ है। पॉचों वर्षों में संवत्सर प्रथम है । ऋतुओं में शिशिर, मासमें माघ, पक्ष मे शुक्ल, तिथियो में प्रतिपदा और दिन-रात में दिन आदि कहा गया है ।१११-११४। मुहूत के वीच रोद्र मुहूर्त और काल-समूह के बीच निमेषामक काल ही आदि है । यह कालज्ञ पण्डितों का मत है। श्रवणा से लेकर श्रवणा तक पाँच वर्षों का एक युग होता है, जो सूर्य के गति विशेष से चक्के की तरह घूमता रहता IT है । इसी कारण सूर्य ही काल कहे गये हैं। इन्ही को ईरवर समझना चाहिये । ये ही चारों प्रकार चराचरो के प्रवर्तक और निवर्तक हैं ।११५-११७ लौकिक व्यवहार को सुश्रृंखलित करने के लिये ईश्वर ने इस प्रकार ज्योतिश्चक्र का निर्माण किया है । हमने भी अनुसंधान करके ज्योतिश्चक्र का विवरण इस तरह वतला दिया । ये ज्योतिश्चक्र अन्त तक सभी दिशाओं में वत्ताकार में विस्तीर्ण हैं, ये श्रवणा से उत्पन्न हुये है और ध्रुव में संलग्न हैं । भगवान् ने कल्प के आदिकाल मे वृद्धिपूर्वक इन सभी आश्रयवान् अभिमानियो का सस्थान किया है। यह ज्योतिश्चक्र विश्वरूपात्मिका प्रकृति का एक अद्भुत विपरिणाम है ।११८-१२० । ज्योतिर्मण्डल ठीक-ठीक वणन कोई भी मनुष्य चर्मचक्षु से देखकर नही कर सकता है इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य शास्त्र, अनुमान का