पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४४९

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

४३० अहं कर्ता च लोकानां संहर्ता च पुनः पुनः । एवं संशषमणाभ्यां परस्परजयैषिणाम् ।। उत्तरां दिशमास्थाय ज्वाला दृष्टऽप्यधिष्ठित १७ ज्वालां ततस्तासालवय विस्मितौ च तदाऽनघाः। तेजसा चैव तेनाथ सर्व ज्योतिष्कृतं जलम् ॥१८ वर्धमाने तदा वह्नावयन्तपरमाद्भुते । अतिदुद्राव तां ज्वालां ब्रह्मा चाहं स सस्वरो १६ दिवं भूमिं च विष्टभ्य तिष्ठन्तं ज्वालमण्डलम् । तस्य ज्वलस्य मध्ये तु पश्यावो विपुलप्रभम् । २० प्रादेशमात्रमव्यक्तं लिङ्ग’ परमदीपितम् । न च तत्काश्चनं मध्ये न शैलं न च राजतम् ॥२१॥ अनिर्देश्यमचिन्त्यं च लक्ष्यालक्ष्यं पुनः पुनः । महौजसं महाघोरं वर्धमानं भृशं तदा । ज्वालासालयत न्यस्त सबसूतभयंकरम् २२ अस्य लिङ्गस्य योऽन्तं वै गच्छते मन्त्रकारणम् । घोररूपिणमत्यर्थं भिन्दन्तमिव रोदसी ॥२३ ततो मामब्रवीद्ब्रह्मा अधो गच्छत्वतन्द्रितः । अन्तमस्य विजानीमो लिङ्गस्य तु महात्मनः ।२४ अहळूर्व गमिष्यामि यावदन्तोऽस्य दृश्यते । तदा तो समयं कृत्वा गतावूर्ध्वमधश्च ह। २५ ततो वर्षसहस्र’ तु अहं पुनरधो गतः । न च पश्यामि तस्यान्तं भीतश्चाहं न संशयः २६ की अभिलाषा कर ही रहे थे कि हम दोनों ने उत्तर की ओर एक जलती हुई ज्योति को देखा ॥१६१७॥ पवित्र मुनियो, उस ज्वाला को देखकर हम दोनो ही विस्मित हो गये; मयोकि उस तेज के प्रभाव से समूची जलराशि जगमगा उठी । वह अद्भुत तेज धीरेधीरे बढने लगा और हम दोनों शीघ्र ही उसका अन्त देखने के लिये हो उघर गये । हम दोनो ने देखा कि, वह ज्वालामाला पृथ्वी और स्वलक को पार उत्सुक कर रही है । उस ज्वाला-मण्डल के मध्य में अन्यन्त प्रभा-पूणं चमशता हुआ एक वितस्ति परिमाण का अस्पष्ट शिवलिङ्ग था । मध्य मे सुशोभित वह लिङ्ग न तो सोने का था, न चौदी का और न तो पत्थर का ही । वह अपरिचित, अचिन्तये, कभी लक्ष्य तो कभी अलक्ष्य होने वाला, अत्यन्त ओजपूर्ण, महाधीरप्रतिक्षण अधिकाधिक बढने वाला, सब प्राणियों को भय-त्रस्त करने वाला और अपनी ज्वाला की अधिकता से विशाल जान पड़ता था ।१८-२२। यह देखकर मैंने कहा कि इस भयंकर रूपवाले लिग का जो कि अपनी ऊंचाई से आकाश को फोड़ता स जान पड़ता है–पता लगाना चाहिये। यह सुनकर ब्रह्मा ने मुझसे कहा—आप आलस्पदत्याग कर इसके निम्न भाग की ओर जाइये, किसी न किसी प्रकार इस रहस्यमय लिग का अन्त जानना चहिये । मैं स्वयं इसका पता लगाने के लिये ऊपर की ओर जा रहा है जब तक इसका अन्त न होगा, ऊपर की ओर बढ़ता ही जाऊँगा । इस प्रकार संकल्प कर दोनों ऊपर और नीचे की ओर गये ।२३-२५। तत्पश्चात् मैं (विष्णू) एक सहस्र वर्ष तक नीचे की ओर चलता ही गया