३१ तेषां याचच्च यद्यच्च तत्तत्तावद्गुणं स्मृतम् । उपलभ्य शुचेर्गन्धं केचिद्धयोरनैपुणात् ||७१ पृथिव्यामेव तद्विद्यादेषां वायोश्च संश्रयात् । (’ एते सप्त महावीर्या नानाभूताः पृथक्पृथक् ।।७२ नाशक्नुवन्प्रजाः स्रष्टुमसमागम्य कृत्स्नशः । ते समेत्य महात्मानो ह्यन्योन्यस्यैच संश्रयात्J७३ पुरुषाधिष्ठितत्वाच्च अव्यक्तानुग्रहेण च । महदादयो विशेषान्ता अण्डमुत्पादयन्ति ते ।७४। (+एककालं समुत्पन्नं जलबुद्बुदचञ्व तत् । विशेषेभ्योऽण्डमभचबुवत्तदुदकं च यत् ।I७५ तत्तस्मिन्कार्यकरणं संसिद्धे ब्रह्मणस्तदा । प्रकृतेऽण्डे चियुद्ध सन्क्षेत्रज्ञो ब्रह्मसंहितः ॥७६ [=स वै शरीरी प्रथमः स वै पुरुष उच्यते)। आदिकर्ता च भूतानां ब्रह्माऽग्रे समवर्तत ।।७७ हिरण्यगर्भः सोऽग्रेऽस्मिन्प्रादुर्भूतश्चतुर्मुखः । सर्गे च प्रतिसर्गे च क्षेत्रज्ञो ब्रह्मसंज्ञितः] I७८ करणैः सह सृज्यन्ते प्रत्याहारे त्यजन्ति च । 'भजन्ते च पुनर्देहानसमाहारसंधिषु॥७६ हिरण्मयस्तु यो मेरुस्तस्योल्बं तन्महात्मनः । गर्भादकं समुद्राश्च जराद्यस्थीनि पर्वतः । ८० तस्मिन्नण्डे त्विमे लोका अन्तर्भूतास्तु सप्त वै । सप्तद्वीपा च पृथिवी समुदैः सह सप्तभिः ॥८१ पर्वतैः सुमहद्भिश्च नदीभिश्च सहस्रशः । अस्तस्तस्मिस्त्विमे लोका अन्तर्विश्वमिदं जगत् ।।८२ इन सबों के जितने जितने और जो जो गुण हैं उनके वे सब बताये गये है । किसी को शुद्ध वायु में अपने दोष के कारण गन्ध गुण मिलता है । वह गन्ध पृथिवी का ही समझना चाहिये, क्योंकि वहाँ वायु में पृथ्वी तत्त्व मिला है । ये सातों महाबली पृथक्-पृथक् अनेक होकर बिना पूर्णतया मिले प्रजाओं की सृष्टि नहीं कर सके (७१-७२। तव महत् तत्त्व से लेकर विशेष पर्यन्त ये महत्तत्व एक दूसरे के आधार बनकर पुरुष के अघिष्ठान है तथा अव्यक्त के अनुग्रह से अण्ड की उत्पत्ति करते हैं। एक ही समय विशेषों से वह अण्ड उस विपुल जल से पानी के बुलबुले की भांति उत्पन्न हुआ । उससे ब्रह्मा का सार्यकरण सिद्ध हुआ । प्राकृत अण्ड के विकसित होने पर उसमें से सत् स्वरूप क्षेत्रज्ञ ब्रह्मा हुए |७३-५६। वही प्रथम शरीरी हैं उन्हीं को पुरुष कहते हैं । भूतों के आदि कर्ता ब्रह्म ही पहले रहे । सर्ग या प्रतिसर्ग में पहले पहल वही हिरण्यगर्भ चतुर्मुख ब्रह्म नामक क्षेत्रज्ञ प्रकट होते है । सृष्टि काल में करणों के साथ इनकी सृष्टि होती है फिर प्रलयकाल में करणों को त्याग देते हैं और पुनः असमाहार सल्वियों में शरीरों को ग्रहण कर लेते हैं । जो स्वर्णमय मेरु है वही उस महात्मा का उल्ब (कलल) । समुद्र उसका गर्भ-जल तथा पर्वत उसकी जरादि हड्डिय हैं I७७-८० उस अण्ड के भीतर ये सारे सातों लोक तथा सातों समुद्रों के साथं सात द्वीपावली पृथिवी छिपी हुई है ।८१सहस्रों बड़ी नदियों और पर्वतों के साथ ये सब लोक यह समूचा जगत् उसी के भीतर है ।८२। चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और वायु जो कुछ लोक तथा “धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थो ङ. पुस्तके नास्ति । +धनुश्चिह्न्तगैग्रन्थो ङ. पुस्तके नास्ति । =एतच्चिह्नान्तर्गतग्रन्थः ख . घ• पुस्तकयोर्नास्ति ।
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