पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५१२

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

________________

४६५ ॥२३ ॥२४ ॥२५ षष्टितमोऽध्यायः पदानामुद्धतत्वाच्च यजूंषि विषमाणि वै । स तेनोद्धृतवीर्यस्तु ऋत्विम्भिर्वेदपारगैः॥ प्रयुज्यते हश्वमेधस्तेन वा युज्यते तु सः ऋचो गृहीत्वा पैलस्तु व्यभजत्तद्विधा पुनः । द्विः कृत्वा संयुगे चैव शिष्याभ्यासददात्प्रभुः इन्द्रप्रमतये चैकां द्वितीयां बाकलाय च । चतस्त्रः संहिताः कृत्वा नाकलिद्विजसत्तमः ॥ शिष्यानध्यापयामास शुश्रूषाभिरतान्हितान् बोध्यं तु प्रथमां शाखां द्वितीयामग्निमातरम् । पराशरं तृतीयां तु याज्ञवल्क्यसथापराम् इन्द्रप्रमतिरेफां तु संहितां द्विजसत्तमः । अध्यापयन्महाभागं मार्कण्डेयं यशस्विनम् सत्यश्रवससन्न्यं तु पुत्रं स तु महायशाः । सत्याश्रवाः सत्यहितं पुनरध्यापयद्विजः सोऽपि सत्यतरं पुत्रं पुनरध्यापयद्विभुः । सत्यश्रियं महात्मानं सत्यधर्मपरायणम् अभवंत्तस्य शिष्या वै त्रयस्तु सुमहौजसः । सत्यश्रियस्तु विद्वांसः शास्त्रग्रहणतत्पराः शाफल्यः प्रथमस्तेषां तस्मादन्यो रथान्तरः । बाष्कलिश्च भरद्वाज इति शाखाप्रवर्तकाः देवमित्रस्तु शाकल्यो ज्ञानाहंकारगवितः। जनकस्य स.यज्ञे वै विनाशमगमद्विजः ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२४ ॥३० ॥३१ ॥३२ सम्पन्न होती है, वही यजुर्वेद है, शास्त्रों का यही निचोड है । वेदों के पारगामी अन्यान्य विद्वान् ऋषियों के ससर्ग से स्फुट यजुर्वेद के मन्त्र एवं पद समूहों को एकत्र संगृहीत किया और उनका विधिवत् संकलन किया । उन्ही यजुर्वेद के मन्त्री द्वारा अश्वमेध यज्ञ का प्रचलन हुआ। परम तेजस्वी पैल ऋषि ने ऋक् समूहो को एकत्र सगृहीत कर दो भागों में विभक्त किया, और उनमें से एक-एक भाग को दो शिष्यों को सौपा एक इन्द्रप्रमति को दूसरा वाष्कल को। द्विजश्रेष्ठ बाष्कलि ने सेवा में निरन्तर निरत रहने वाले, कल्याण भाजेन अपने चार शिष्यों को, उसका चार संहिताओं में विभाग करके पढ़ाया ।२२-२५। जिनमे से पहली शाखा की बोध्य को, दूसरी शाखा की अग्निमाठर को, तीसरी शाखा की पाराशर को और चौथी शाखा की याज्ञवल्लय को शिक्षा दी। ब्राह्मणो में श्रेष्ठ इन्द्रप्रमति ने एक संहिता का सम्पादन कर परम यशस्वी और भाग्यशाली मार्कण्डेय मुनि को उसकी शिक्षा दी। महान् यशस्वी मार्कण्डेय मुनि ने उसे सत्यश्रवा नामक अपने ज्येष्ठ पुत्र को और सत्यश्रवा ने सत्यहित नामक शिष्य को उसकी शिक्षा दी ।२६-२८। परम ऐश्वर्यशाली सत्यहित ने अपने पुत्र सत्यतर (सत्यरत) को और सत्यतर ने सत्यपरायण धर्मश्रेष्ठ महात्मा सत्यश्री को उसकी शिक्षा दी। विद्वान सत्यश्री के शास्त्राभ्यास में तत्पर रहने वाले परम तेजस्वी तीन शिष्य हुये जिनमें से प्रथम का नाम शाकल्य, दूसरे का नाम रथान्तर और तीसरे का नाम वाष्कल का पुत्र भरद्वाज था। ये ही ऋपिगण वेद की शाखाओं के प्रवर्तक कहे गये है। अपने ज्ञान के अहंकार से गर्वित होकर शाकल्य वेदमित्र नामक द्विज राजा जनक के यज्ञ में विनाश को प्राप्त हुये ।२६-३२।