एकषष्टितमोऽध्यायः सुल उवाच कार्यमासोदृषीणां च किंचिद्ब्राह्मणसत्तमाः । मेरुपृष्टं तदा गत्वा सम्पत्त्यर्थं तु मन्त्रिम् यो नोऽत्र सप्तरात्रेण नागच्छेद्द्वजसत्तमाः । स कुर्याद्ब्रह्मवध्यां वै समयो नः प्रकीर्तितः ततस्ते सगणाः सर्वे वैशम्पायनवर्जिताः । प्रययुः सप्तरात्रेण यत्र संधिः कृतोऽभवत् ब्राह्मणानां तु वचनाद्ब्रह्मवध्यां चकार सः । शिष्यानय समानीय स वैशम्पायनोऽब्रवीत् ब्रह्मवध्यां चरध्वं वै मत्कृते द्विजसत्तमाः । सर्वे यूयं समागम्य ब्रूत मैतद्धितं वचः याज्ञवल्क्य उवाच अहमेव चरिष्यामि तिष्ठन्तु मुनयस्त्विमे | वलं चोत्थापयिष्यामि तपसा स्वेन भावितः एवमुक्तस्ततः क्रुद्धो याज्ञवल्क्यमथाब्रवीत् | उवाच यत्त्वयाऽधीतं सर्व प्रत्यर्पयस्व से एवमुक्तः स रूपाणि यजूंषि प्रददौ गुरोः । रुधिरेण तथाक्तानि छदित्वा ब्रह्मवित्तमाः ततः स ध्यानमास्थाय सूर्यमाराधयद्विजाः । सूर्यग्रा यहुच्छिन्नं खं गत्वा तितिष्ठति ४र्दर्द ॥१२ ॥१३ ॥१४ ॥१५ ॥१६ ॥१७ ॥१८ ॥१६ ॥२० - सूत ने कहा- ब्राह्मणश्रेष्ठवृन्द ! प्राचीन काल मे एक समय ऋषियो को कोई एक ऐसा कार्य आ पडा जिसमें सुमेरु पर्वत पर जाकर वे सब सम्पत्ति के लिये उपस्थित हुये थे । उस समय उन्होंने यह प्रण किया था कि जो ब्राह्मण सात रात के बीच में हमारी इस मन्त्रणा में सहयोग देने के लिये नही आ जाता है वह ब्रह्महत्या का पाप ग्रहण करेगा, ऐसी हम लोगो की प्रतिज्ञा है । ऋषियों की ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर सभी ऋषिमुनि अपने-अपने शिष्यादि को साथ ले लेकर वही उपस्थित हुये, जहाँ पहुँचने के लिये प्रतिज्ञा की गई थी केवल वैशम्पायन ऋषि वहाँ नही गये |१२ - १४ । और इस प्रकार समान ब्राह्मणो के चचनानुसार वे ब्रह्महत्या के भागी हुये | वैशम्पायन ने उस अवसर पर अपने शिष्यों को बुलाकर कहा -- द्विजवयवृन्द ! तुम सब लोग मिलकर मेरे लिये इस ब्रह्महत्या के पाप का भोग करो, कहो, क्या यह मेरी बात हितकर नहीं है ।१५-१६। याज्ञवल्क्य बोले- "मैं इस ब्रह्महत्या का अनुभव करूंगा ये मुनिगण आपके साथ ही रहें । अपनी तपस्या द्वारा पराक्रम संचय करके में उसका अनुभव करने में समर्थ होऊँगा ।" याज्ञवल्क्य के ऐसा कहने पर वैशम्पायन ने क्रुद्ध होकर उनसे कहा- तुमने जो कुछ मुझसे अध्ययन किया है वह सब लौटा दो ११७-१५॥ वैशम्पायन के इस प्रकार कहने पर ब्रह्मज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ मुनिवर याज्ञवल्पय ने वमन द्वारा रुधिर से भीगे हुये समस्त यजुर्वेद को मूर्त रूप में गुरु के सम्मुख प्रत्यर्पण कर दिया। द्विजवृन्द ! तदनन्तर याज्ञवल्क्य मुनि ने ध्यान लगाकर सूर्य की आराधना की, उस समय आकाश मण्डल में जितने ऊपर जाकर सूर्य रूप ब्रह्म
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