पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५३०

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एकषष्टितमोऽध्यायः di: प्रेगर्वावस्थितं भूयो भूर्भुवः स्वरिति स्मृतम् । ऋग्यजुः सामाथर्वाणं यत्तस्मै ब्रह्मणे नमः +जगतः प्रणयोत्पत्तौ यत्तत्कारणसंज्ञितम् । महतः परमं गुह्यं तस्मै सुब्रह्मणे नमः अगाधपारमक्षय्यं जगत्संसोहवालयम् । सप्रकाशप्रवृत्तिभ्यां पुरुषार्थप्रयोजनम् सांख्यज्ञानवतां निष्ठा गतिः संगदमात्मनः । यत्तदव्यक्तममृतं प्रकृतिब्रह्म-शाश्वतम् प्रधान'मात्मयोनिश्च गुह्यं सत्त्वं च शब्द्यते । अविभागस्तथा शुक्रमक्षरं बहुवाचकम् ॥ परमब्रह्मणे तस्मै नित्यमेय नमो नमः कृते पुनः क्रियां नास्ति कृत एवाकृतक्रिया | संकृदेव कृतं सर्वं यद्वै लोके कृताकृतम् 'श्रोतव्यं वै श्रुतं वाऽपि तथैवासाघुसाधुताम् । ज्ञातव्यं चाथ मन्तव्यं स्प्रष्टव्यं भोज्यमेव च ॥ द्रष्टव्यं चाथ श्रोतव्यं ज्ञातव्यं वाइथ किंचन ★★ दशितं यदनेनैव ज्ञानं तद्वै सु॑रषिणाम् । यद्वै' दशितवानेष कस्तदन्वेष्टुमर्हति ॥ सर्वाणि सर्वान्सर्वाश्च भगवानेव सोऽब्रवीत् i ● पूढ ॥१०८ ॥१०९ ॥ ११० ॥१११ ॥ ११२ ॥११३ ॥ ११४ ॥११५ 7. -- p द भी ब्रह्म कहलाता है ।१०४-१०७ वह ब्रह्म सर्व प्रथम प्रणव 'ओंकार' में अवस्थित रहता है, पश्चात् 'भूर्भुवः स्वः' भी वही स्मरण किया जाता है । ऋक् यजु साम और अथर्व भी उसके विकसित स्वरूप है, ऐसे उसे हम नमस्कार करते है । इस चराचर जगत् की उत्पत्ति तथा प्रलय का जिसे कारण बतलाया जाता है, उस महान् से महत्तम एवं परम गुह्य सुब्रह्म को हमारा नमस्कार है । जिसका पार कोई नही पाता, जो कभी विनष्ट नही होता, जिसका अवसान कोई नहीं देखता, जो समस्त जगत् का सम्मोहन करने वाला है, जिसके प्रकाश और प्रवृत्ति से पुरुषार्थ का प्रयोजन सिद्ध होता है, जो साख्य ज्ञानशालियों की निष्ठा एवं गति का आश्रय है, जो अपना संग देनेवाला है, जो अव्यक्त, अमृत, प्रकृति, ब्रह्म, शाश्वत, प्रधान, स्वयम्भू परमगुह्य एवं सत्त्वगुणमय है, जिसका विभाग नहीं है, उस शुक्र, अविनाशी, बहुवाचक परमब्रह्म को हमारा नित्य बारम्बार नमस्कार है । १०८-११२। सतयुग में किसी प्रकार के कर्म करने की कोई प्रवृत्ति नहीं थी अकार्य के करने की प्रवृत्ति तब किस प्रकार से हो सकती थी, लोक मे जो कुछ भी कृताकृत अच्छे या बुरे कार्य- कलाप है उन सब को एक बार में ही उस परब्रह्म ने किया | सुनने योग्य, सुना हुआ, साधुत्व, असाधुत्व, जानने योग्य, मानने योग्य, स्पर्श करने योग्य, भोजन करने योग्य, देखने योग्य, सुनने योग्य, जानने योग्य आदि-आदि जितने भी कृताकृत कार्य कलाप इस जगत् में हैं, वे सभी उस पर ब्रह्म के किये हुये है । भगवान् ने सब प्रकार के ज्ञान, सभी वेद एवं सम्पूर्ण संहिताओं का उपदेश एवं देवताओं और ऋषियों को 1 ".

1 + नास्त्ययं श्लोकः ख.' घं. पुस्तकयोः ।