५१४ वायुपुराणम् क्षीणे मन्वन्तरे पूर्व प्रवृत्ते चापरे पुदः । सुखे कृतयुगस्याथ तेषां शिष्टास्तु ये तदा सप्तर्षयो मनुश्चैव कालावेक्षास्तु ये स्थिताः । मन्वन्तरं प्रतीक्षन्ते श्रीयन्ते तपसि स्थिताः मन्वन्तरव्यवस्थार्थ संतत्यर्थ च सर्वशः । पूर्ववत्संप्रवर्तन्ते प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने द्वन्द्वेषु संप्रवृत्तेषु उत्पन्नास्वोषधीषु च । प्रजासु च निकेतासु संस्थितासु क्वचित्वददित् वार्तायां तु प्रवृत्तायां सङ्घर्ड्स ऋऋषिभाविते । निरानन्दे गते लोके नष्टे स्थावरजङ्गमे अग्रामनगरे चैव वर्णाश्रमविवर्जिते । पूर्वमन्वन्तरे शिष्टे ये भवन्तीह धार्मिकाः ॥ सप्तर्षयो मनुश्चैव संतानार्थं व्यवस्थिताः प्रजार्थ तपसां तेषां तपः परमदुश्चरम् | उत्पद्यन्तीह सर्वेषां निधनेविह सर्वशः देवासुराः पितृगणा सुनयो मनवस्तथा । सर्पा भूताः पिशाचाश्च गन्धर्वा यक्षराक्षसाः ततस्तेषां तु ये शिष्टाः शिष्टाचारान्प्रचक्षते | सप्तर्षयो मनुश्चैव आदौ मन्वन्तरस्य ह || प्रारभन्ते च कर्माणि मनुष्या दैवतैः सह मन्वन्तरादौ प्रागेव त्रेतायुगमुखे ततः । पूर्व देवास्ततस्ते वै स्थिते धर्मे तु सर्वशः ॥१५६ ॥१५७ ॥१५८ ॥१५६ ॥१६० ॥१६१ ॥१६२ ॥१६३ ॥१६४ ॥१६५ की समाप्ति होने पर जब कि पिछला मन्वन्तर प्रारम्भ होता है, सत्ययुग के प्रारम्भ मे जो कलियुग के शेष सप्तपि गण तथा मनु मन्वन्तर की व्यवस्था तथा सृष्टि के विस्तार के लिए काल की प्रतीक्षा करते हुए स्थित रहते है तथा तस्मा में निरत हो अगले मन्वन्तर की प्रतीक्षा मे अपना काल यापन करते हैं । १५६-१५८। उस समय पहिले की तरह सृष्टि हो जाने पर जब ओपधियाँ पृथ्वी पर उत्पन्न हो जाती हैं, स्त्री पुरुष अपने अपने कर्मों मे पूर्ववत् प्रवृत्त हो जाते है, कही कही पर प्रजाएँ अपना अपना निवास स्थान बनाकर निवास करने लगती है, जीविका का प्रश्न चलने लगता है, स्थावर जगम जगत् के नष्ट हो जाने पर सव लोग आनन्द रहित जीवन विताने लगते है, वर्णाश्रम की व्यवस्था नही रह जाती ग्राम एवं नगरो का अस्तित्व नही रह जाता, तव पूर्व मन्वन्तर के बने हुए परम धार्मिक प्रवृत्ति वाले सप्तर्षि तथा मनु, सन्ता- नोत्पत्ति के लिए उद्यमशील होते हैं, और इसके लिए परम कठोर तप करते है । सत्र का विनाश हो जाने पर इस पृथ्वी पर देवता, अमुर, पितर, मुनि, मनुष्य, सर्प, भूत पिशाच, गन्धर्व, यक्ष, राक्षसादि की उत्पत्ति होती है । १५६-१६३। इस प्रकार उस समय मन्वन्तर के प्रारम्भ मे उन बची हुई प्रजाओ मे जो शेष रह जाते हैं वे शिष्टाचार का उपदेश करते है, तथा सातों ऋषिगण, मनु और मनुष्यगण देवताओं के साथ सृष्टि का कार्य प्रारम्भ करते हैं, तदनन्तर त्रेता युग के प्रारम्भ होने पर जव चारो ओर धर्म की प्रतिष्ठा हो चुकती है, सर्व- प्रथम देवगण तदनन्तर वे अवशिष्ट मानव गण ब्रह्मचर्य व्रत द्वारा ऋषियों के ऋण से, सन्तानोत्पत्ति करके
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