पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५४६

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द्विषष्टितमोऽध्यायः प्रजानां पतयश्चान्ये दक्षः प्राचेतसस्तथा । उत्तानपादं जग्राह पुत्रमत्रिः प्रजापतिः दक्षकस्य तु पुत्रोऽस्य राजा ह्यासोप्रजापतेः । स्वायंभुवेन मनुना दत्तोऽत्रेः कारणं प्रति सन्वन्तरमथाऽऽसाद्य भविष्यं चाक्षुषस्य ह । षष्ठं तदनुवक्ष्यामि उपोद्घातेन वै द्विजाः उत्तानपादाच्चतुरा सूतृता वित्तभाविनी | *धर्मस्य कन्या धर्मज्ञा सुतृता नाम विश्रुता ! उत्पन्ना चाधिधर्मेण ध्रुवस्य जननी शुभा | धर्मस्य पत्न्यां लक्ष्यां वै उत्पन्ना सा शुचिस्मिता ध्रुवं च कीर्तिमन्तं च अयस्मन्तं वसुं तथा । उत्तानपादोऽजनयत्कन्ये द्वे च शुचिस्मिते ॥ मनस्विनी स्वरां चैव तयोः पुत्राः प्रकीर्तिताः ध्रुवो वर्षसहस्राणि दश दिव्यानि वीर्यवान् | तपस्तेपे निराहारः प्रार्थयविपुलं यशः त्रेतायुगे तु प्रथमे पौत्रः स्वायंभुवस्य सः । आत्मानं धारयन्योगात्प्रार्थयन्सुमहद्यशः तु तस्मै ब्रह्मा ददौ प्रोतो ज्योतिषां स्थानमुत्तमम् । आसूतसंप्लवं हृद्यमस्तोदयविवर्जितम् तस्यातिमात्रामृद्धि च महिमानं निरीक्ष्य ह । दैत्यासुराणामाचार्यः श्लोकमप्युशना जगो १२५ ॥७२ ॥७३ ॥७४ ॥७५ ॥७६ १७७ ॥७८ ॥७६ 1150 ॥८१ जिनमें प्राचेतस दक्ष नामक प्रजापति थे ! प्रजापति अत्रि ने उत्तानपाद नामक पुत्र को ग्रहण किया। इस दक्ष प्रजापति का पुत्र राजा था । स्वायम्भुव मनु ने उसे अत्रि के लिए दिया था । हे द्विजगण ! चाक्षुष नामक भविष्यत्कालीन मन्वन्तर का, जो कि छठाँ मन्वन्तर माना गया है, मैं विस्तार पूर्वक पुन वर्णन कर रहा हूँ ०७१-७४। घर्मं को विख्यात धर्मज्ञा सूनृता नामक जो कन्या थी, उस परम चतुर, वित्तभाविनी सूनृता के संयोग से राजा उत्तानपाद को ध्रुव नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह सूनृता परम धार्मिक तथा ध्रुव की कल्याणी माता थी, वह सुन्दर हँसने वाली धर्म की लक्ष्मी नामक पत्नी में उत्पन्न हुई थी । राजा उत्तानपाद ने ध्रुव, कीर्तिमान्, अयस्मान् तथा वसु नामक पुत्रों को तथा दो परम सुन्दरी मनस्विनी और स्वग नामक कन्याओं को उत्पन्न किया – जिनके पुत्रों का वर्णन पहिले किया जा चुका है ।७५-७७॥ परम पराक्रमी ध्रुव ने देवताओं के दस सहस्र वर्षो तक विपुल यश की कामना से निराहार रहकर घोर तप किया | स्वायम्भुव मनु के पौत्र ध्रुव प्रथम त्रेता युग में योगबल से आत्मा को स्ववश रख महान् यश को लिप्सा से परम कठोर तप में जब निरत थे, तब प्रसन्न हो ब्रह्मा ने उन्हे ज्योतिगंणो का परम श्रेष्ठ स्थान प्रदान किया, जो महाप्रलय पर्यन्त स्थायी, हृदय को हरने वाला तथा अस्त एवं उदय से निर्वाजत है | ध्रुव की इस परम उन्नति, सम्पत्ति एवं महिमा को देख समस्त असुर तथा दानवों के आचार्य शुक्र ने उनका यशोगान किया ।७८-८१॥ अहो ध्रुव की परम कठोर तपस्या और पराक्रम धन्य है, इसके शास्त्रज्ञान, एवं इसके ने

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