द्विषष्टितमोऽध्यायः ऊरुः पुरुः शत चुम्नस्तपस्वी सत्यवावकविः | अग्निष्टुतिरात्रश्च सुद्युम्नश्चेति ते नव ॥ अभिमन्युश्च दशमो नहलायां मनोः सुताः ऊरोरजनयत्पुत्रान्बडाग्नेयी महाप्रभान् । अङ्ग सुमनसं स्वाति क्रतुमङ्गिरसं शिवस् अङ्गात्सुनीथाऽपत्यं वै वेनमेकं व्यजायत । अपचारेण वेनस्य प्रकोपः सुमहानभूत् प्रजार्थमृषयस्तस्य ममन्थुर्दक्षिणं करम् | वेनस्य प्राणी मथिते संबभूव महान्नृपः ॥
- वैन्यो नाम महीपालो यः पृथुः परिकीर्तितः
स धन्वी कवची जातस्तेजसा प्रज्वलन्निव | पृथुर्वैन्यः सर्वलोकाररक्ष क्षत्रपूर्वजः राजसूयाभिषिक्तानामाद्यः स वसुधाधिपः । तस्य स्वार्थप निपुणौ सूतमागधौ तेनेयं गौर्महाराज्ञा दुग्धा सस्यानि धीमता । प्रजानां वृत्तिकाभानां देवैर्ऋऋषिगणैः सह पितृभिर्दानवैश्चैव गन्धर्वैरप्सरोगणैः । सर्वैः पुण्यननैश्चैव दोरुद्भिः पर्वतैस्तथा तेषु तेषु तु पात्रेषु दुह्यमाना वसुंधरा | प्रादा द्यथेप्सितं क्षीरं तेन लोकांस्त्वधारयत् ५२७ ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ ॥ ॥१०० महात्मा अरण्य को नद्वला नामक कन्या मे उस चाक्षुष मनु के संयोग से दस शुभकारी पुत्र उत्पन्न हुए । जिनके नाम उरु, पुरु, शतद्युम्न, तपस्वी, सत्यवाकू, कवि, अग्निष्टुत, अतिरात्र, सुधुम्न, और अभिमन्यु ये दस पुत्र नद्वला मे मनु से उत्पन्न हुए थे । उसकी पत्नी आग्नेयी ने उरुके संयोग से अतिशय तेजस्वी छः पुत्रों को उत्पन्न किया, जिनके नाम अङ्ग, सुमनस्, स्वाति, ऋतु, अंगिरा और शिव थे । अङ्ग की पत्नी सुनीथा ने अंग के संयोग से एकमात्र वेन नामक पुत्र को उत्पन्न, किमा, जब वेन के अत्याचारों से प्रजावर्ग मे घोर असन्तोष फैल गया तब ऋषियो ने सन्तानोत्पत्ति के लिए उसके दाहिने हाथ का मन्थन किया। उस समय वेन क हाथों के मंथन पर परम प्रतापी पृथु नाम से विख्यात सन्नाट् उत्पन्न हुआ |१०-१५] क्षत्रियों का अग्रज वेन का पुत्र पृथु अपने असह्य तेज से जलते हुए की भाँति धनुष और कवच धारण किये हुए उत्पन्न हुआ था, और अपने अपार साहस से समस्त लोक की रक्षा की थी । राजसूय यज्ञ से अभिषिक्त राजाओं मे समस्त वसुधा का स्वामी वह पृथू ही सवप्रथम था उसकी स्तुति करने के लिए दो निपुण सूत और मागध उत्पन्न हुये थे । परम बुद्धिमान् उस महाराज पृथु ने वृत्ति की अभिलाषिणी प्रजाओं के लिए ऋषियों देवताओ, पितरों, दानवों, गन्धर्वो अप्सराओ सभी पुण्यात्मा पुरुपो वृक्षों तथा पर्वतों के समूहों के साथ गो रूप धारिणी पृथ्वी से अन्नराशियों का दोहन किया । दोहन के समय पृथक-पृथक् पात्रों में दुही गई वसुन्धरा ने दुहने वाले को यथाभिलपित क्षीर प्रदान किया, जिसके द्वारा समस्त लोकों की रक्षा हुई |१६-१००।
- एतदर्घस्थानेऽयं श्लोकः- "जनयित्वा सुतं तस्य पृथुं प्रथितपौरुषम् । अद्र्वंस्त्वेष वै राजन्मुनयो मुदिताः
प्रजाः" इति ख. ग. घ ङ. पुस्तके |