पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५५७

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५३६ वायुपुराणम् मन्वन्तरेष्वतीतेषु विषभाऽऽसीद्वसुंधरा | स्वभावेनाभवंस्तस्याः समानि विषमाणि च न हि पूर्वविसर्ग वै विषमे पृथिवीतले । प्रविभागः पुराणां वा ग्रामाणां वाऽपि विद्यते न सस्यानि न गोरक्षा न कृषिर्न वणिदपथः । चाक्षुपस्यान्तरे पूर्वमेतदासीत्पुरा फिल ॥ वैवस्वतेऽन्तरे तस्मिन्सर्वस्यैतस्य संभवः ॥१७२ ॥१७३ ऋषिभिः स्तूयते वाऽपि पुनर्दुग्धा वसुंधरा । वत्सः सोमस्त्वभूत्तेषां दोग्धा चापि बृहस्पतिः पात्रमासीत्तु च्छदांसि गायत्र्यादीनि सर्वशः । क्षीरमासीत्तदा तेषां तपो ब्रह्म च शाश्वतम् ॥१७४ ॥१७५ समत्वं यत्र यत्राऽऽसीद्भूपस्तस्मस्तदेव हि । तत्र तत्र प्रजास्ता वै निवसन्ति स्म सर्वदा आहारफलमूलं तु प्रजानामभवत्किल | *कृच्छ्र जैव तदा तासामित्येवनतुशुश्रुम् ॥ वैन्यात्प्रभृ त लोकेऽस्मिन्सर्वस्यैतस्य संभवः ॥१७६ +कृच्छ्रण महता साऽपि प्रनष्टास्वोषधीषु वै । स कल्पयित्वा वत्सं तु चाक्षुषं मनुमीश्वरः ॥ पृथुटुंदोह सस्यानि स्वतले पृथिवीं ततः ॥१७७ सस्यानि तेन दुग्धानि (वै ) वैन्येन तु वसुंधरा | मनुं च चाक्षुषं कृत्वा वत्सं पात्रे च भूमये ॥ तेनानेन तदा ता वै वर्तयन्ते प्रजाः सदा ॥१७८ ॥१७६ ॥१८० ऊँचाई अधिक हो गई | वीते हुए मन्वन्तरों मे पृथ्वी अत्यन्त दुर्गम तथा स्वाभाविक ढङ्ग पर कहीं समान, कही विषम थी । इस प्रकार के विषम पृथ्वीतल पर पूर्व सृष्टि काल मे पुरों और ग्रामों का कोई विभाग नही था. न अन्न पैदा होते थे, न पशुपालन, न कृषि अथवा वाणिज्य आदि व्यवसाय ही था । चाक्षुष मन्वन्तर में पृथ्वी की यही दशा थी । वैवस्वत मन्वन्तर मे इन सभी कार्यों का प्रचलन हुआ । जहाँ-जहाँ पर पृथ्वी समान रही वहाँ-वहाँ पर प्रजावर्ग आ आकर अपना निवास बनाकर रहते थे । आहार, फूल, मूल आदि थे, बड़ी कठिनाई से उनका जीवन चलता था - i - ऐसा हमने सुना है। किन्तु पृथ् के कार्यकाल से इस पृथ्वी लोक में सभी वस्तुएँ उत्पन्न होने लगीं ॥१७१-१७६ | पृथ्वो तल से नष्ट होकर लुप्त होने वाली ओषधियों की बड़ी कठिनाई से उसने पुनः रक्षा की । फिर उस परम ऐश्वर्यशाली पृथु ने चाक्षुष मनु को बछड़ा बनाकर अपने करतल मे अन्न राशि को पृथ्वी से दोहन किया । इस प्रकार वेन पुत्र राजा पृथु ने गो रूप धारिणी पृथ्वी से चाक्षुष मनु को बछडा बना कर पृथ्वी के पात्र में अन्नों का दोहन किया और उसी अन्न से उस समय की सभी प्रजाओ को जीविका चलायी। सुना जाता है कि इसके बाद ऋषियो ने वसुन्धरा का पुनः दोहन किया, उनके समूह के बछडे चन्द्रमा तथा दुहने वाले बृहस्पति बने थे, दुहने का पात्र गायत्री आदि सभी प्रकार के छन्द समूह थे, उन ऋषियो का क्षीर शाश्वत ब्रह्म एवं तप था । १७७-१८० तदनन्तर इन्द्र आदि प्रमुख

  • इदमर्ध नास्ति ख ग घ. ड पुस्तकेपु | + इदमर्ध नास्तिक. पुस्तके |