पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५६५

एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

५४४ वायुपुराणम् देवानां दानवानां च देवर्षीणां च ते शुभः । संभवः कथितः पूर्व दक्षस्य च महात्मनः प्राणात्प्रजापतेर्जन्म दक्षस्य कथितं त्वया । कथं प्राचेतसत्यं च पुनलेने महातपाः एतं नः संशयं सूत व्याख्यातुं त्वमिहाहंसि | स दौहित्रश्च सोमस्य कथं श्वशुरतां गतः सूत उवाच उत्पत्तिश्च निरोधश्च नित्यं भूतेषु सत्तमाः । ऋऋषयोऽत्र न मुह्यन्ति विद्यावन्तमच ये नराः युगे युगे भवन्त्येते सर्वे दक्षादयो द्विजाः । पुनश्चैव नियन्ते विद्वांत्तन न मुह्यति ज्येष्ठ कानिष्ठ्यमप्येषां पूर्व नासोद्विजोत्तमाः । तप एवं गरीयोऽभूत्प्रभावश्चैव कारणम् इमां विसृष्टि यो वेद चाक्षुषस्य चराचरम् । प्रजानामापुरतीर्णः स्वर्गलोके महीयते एष सर्गः समाख्यातश्चाक्षुषस्य समासतः । इत्येते प‌विसर्गा हि क्रान्ता मन्वन्तरात्मकाः ॥ स्वायंभुवाद्याः संक्षेपाच्चाक्षुषान्ता यथाक्क्रमम् एते सर्गाः प्रजाप्रज्ञं प्रोक्ता वै द्विजसत्तमाः । वैवस्वतविसर्गेण तेषां ज्ञेयस्तु विस्तरः ।।४६ १॥४७ ||४६ ॥४६ 1140 ॥५१ ॥५२ ॥५३ ॥५४ ऋषियों ने कष्ठा- सूतजो ! देवताओं, दानयो तथा देवपियों को उत्पत्ति सुमने महात्मा दस बी उत्पत्ति के पूर्व वतलाई है और प्रजापति दक्ष का जन्म प्राण में बतनाया, उस महातपस्यों ने फिर किस प्रकार प्रचेताओं के पुत्र होने का गौरवपूर्ण पद प्राप्त किया- हम लोगो के इस सन्देह को तुम दूर करो, तथा यह भी बतलाओ कि यह चन्द्रमा का दोहन (नाती) होकर फिर उसफा शुर कसे हुआ ।४६-४८१ सूत ने कहा – ॠपिवयंवृध्द ! यह जन्म और निरोध (विनाम या निवृत्ति) सर्वदा सर्वसामान्य जीवों में हुआ करते है, ऋषिगण तथा विद्वान् लोग इस विषय में कभी मोह को नही प्राप्त होते । हे द्विजगण ! ये दक्षादि प्रजापति नण प्रत्येक युग उत्पन्न होते रहते हैं और फिर से ये विनाम को प्राप्त हो जाते है - इस विषय मे विद्वानों को मोह नही होता | हे द्विजोत्तमवृन्द ! पूर्वकाल में इन सबो मे ज्येष्ठ और कनिष्ठ का भाव नही रहा है, केवल रावस्या हो इनको महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी तथा इनके व्यक्तिगत प्रभाव हो इनको महत्ता के कारण होते रहे । चाक्षुप मनु की इस चराचर सृष्टि-वृत्तान्त को जो व्यक्ति भली भांति जानता है वह अपनी मारी आयु सुखपूर्वक समाप्त कर अन्त मे स्वर्ग लोक मे पूजित होता है।४६-५२१ चाक्षुप मन्वन्तर की सृष्टि सक्षेप में वर्णन कर चुका । इस उपर्युक्त छ मन्वन्तरो का, जो स्वायम्भुव मनु से आरम्भ कर चाक्षुप मनु के अन्त तक चलते हैं, सक्षेप मे क्रमिक वर्णन किया जा चुका | हे द्विजवर्यवाद ! इन दृष्टि वृत्तान्तों को अपनी जानकारी के अनुसार मैं आप लोगों को बतला चुका, इनका विस्तारपूर्वक वर्णन ववस्वत मन्वन्तर के समान