पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५७९

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५५८ वायुपुराणम् 1150 ॥८१ एतैरेव तु कासं त्वां प्रापयिष्यामि याजनम् । श्रुत्वेन्द्रस्य तु तद्वाक्यं तस्माद्देशादपाक्रमत् तिरोभूतेषु तेष्विन्द्रो धर्मपत्नीं च चेतनाम् । ग्रहेण सोचयित्वा तु ततः सोऽनुससार ताम् तत इन्द्रविनाशाय यतमानान्यतींस्तु तान् । तत्राऽऽगतात्पुनर्दृष्टवा दुष्टानिन्द्रः प्रहन्य ( ण्य ) तु || सुष्वाप देवदेवस्य वेद्यां वै दक्षिणे ततः तेषां तु भक्ष्यमाणानां तत्र शालावृकैः सह । शीर्षाणि न्यपतंस्तानि खर्जूराण्यभवंस्ततः एवं वरूत्रिणः पुत्रा इन्द्रेण निहताः पुरा । यजन्यां देवयानी च शुक्रस्य दुहिताऽभवत् त्रिशिरा विश्वरूपस्तु त्वष्टः पुत्रोऽभवन्महान् | *यशोधरावामुत्पत्नो वैरोचन्यां महायशाः ॥ विश्वरूपानुजश्चापि विश्वकर्मा यमः स्मृतः ॥८५ भृगोस्तु भृगवो देवा जज्ञिरे द्वादशाऽऽत्मजाः । देव्यां तान्सुषुचे सर्वान्काव्यश्चैवाऽऽत्मजान्प्रभुः ॥८६ भुवनो भावनश्चैव अन्यश्चान्यायतस्तथा । क्रतुः अवाश्च मूर्धा च व्यजयो व्यश्रुषश्च यः ॥ प्रसवश्चाप्यजश्चैव द्वादशोऽधिपतिः स्मृतः इत्येते भृगवो देवाः स्मृता द्वादश याज्ञिकाः । पौलोम्यजनयत्पुत्रं ब्रह्मिष्ठं वसिनं विभुम् ॥८२ ॥८३ ॥८४ ॥८७ ॥८८ से कहा कि मैं इन्हीं लोगो के द्वारा तुमसे यज्ञ करवाऊँगा | इन्द्र की बाते सुनकर वे लोग वहाँ से पलायन कर गये ।७७-८०। उन लोगों के छिप जाने पर उनकी धर्मपत्नी चेतना को पुरस्कारों से प्रलोभित कर इन्द्र ने अनुगमन किया । तदनन्तर इन्द्र के विनाशार्थ यत्न करते हुए वे यति ( संन्यासी) वेश में उसी स्थान पर पुनः आये, वहां पर उन दुरात्माओ को आया देख इन्द्र ने संहार कर दिया और स्वयं देवदेष के यज्ञ को दक्षिण वेदी पर शयन किया । वहाँ पर शाला में रहनेवाले गीदड़ों और कुत्तो द्वारा भक्षण करते समय उन वरुत्रीपुत्रो के शिर गिरकर खजूर रूप में परिणत हुए। इस प्रकार प्राचीन काल मे वस्त्री के पुत्रों का इन्द्र द्वारा सहार किया गया । यजनी ( जयन्ती ) नामक पत्नी से शुक्र की पुत्री देवयानी की उत्पत्ति हुई 1८१-८४। विरोचन की कन्या यशोधरा में त्वष्टा के तीन शिरवाले विश्वरूप एवं उनके अनुज महान् यशस्वो विश्वकर्मा की यमज ( जुड़वा ) उत्पत्ति हुई । भृगु के बारह पुत्र उत्पन्न हुए जो भृगुगणदेव के नाम से प्रसिद्ध है । भगवान् काव्य ने देवी में उन सभी आत्मजो को उत्पन्न किया | जिनके नाम भुवन, भावन, अन्य, अन्यायत, नतु, श्रवा, मूर्धा, व्यजय, व्यश्रुप, प्रसव, अज एवं अधिपति स्मरण किये गये हैं । ये बारह भृगुपुत्र वारह याज्ञिक देवगणो के नाम से विख्यात है १८५-८७३ | पुलोमा की पुत्री पौलोमी ने ब्रह्मनिष्ठ जितेन्द्रिय परम प्रभावशाली पुत्र को उत्पन्न किया | किसी कठोर कर्म के कारण पौलोमी का वह गर्भं आठवे

  • इदमधं नास्ति क. पुस्तके