पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६०५

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५८४ वायुपुराणम् आत्मनः प्रतिरूपाणि परेपां च सहस्रशः | कुर्याद्योगबलं प्राप्य तैश्च सर्वैः सहाऽचरेत् प्राप्नुयाद्विषयांश्चैव तथैवोतपश्चरन् । संहरेच्च पुनः सर्वान्सूर्यतेजो गुणानिव इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते गुणनरन्तर्ये कश्यपीयप्रजासर्गो नाम पट्षष्टितमोऽध्यायः ॥६६॥ सप्तषष्टितमोऽध्यायः कश्यपीय प्रजासर्गः ऋषय ऊचुः एतच्छु त्वा वचस्तस्य नैमिषेयास्तपस्विनः | पप्रच्छुर्ऋषयः श्रेष्ठं वचनस्य यथाक्रमम् सप्तस्विह कथं देवा जाता मन्वन्तरेष्विह | इन्द्रविष्णुप्रधानास्ते आदित्यास्तु महौजसः ॥ एतत्प्रब्रूहि नः सर्वं विस्ताराद्रोमहर्षण ॥१५२ ।।१५३ ॥१ ॥२ श्लोकों को कहते हैं | जिनका आशय इस प्रकार है । वह योगेश्वर ( भगवान्) अपने योगचल द्वारा सूर्य तेज द्वारा गुणो की भाँति अपने एवं अन्यान्य के सहस्रों प्रतिरूपों ( प्रतिमूर्तियों) का निर्माणकर उनके साथ व्यवहार करता है एवं उग्र तपस्या करते हुए सभी भोगो को प्राप्त होता है और पुन: उन सब का संहार ( समापन ) करता है ।१५१-१५३। श्री वायुमहापुराण मे गुणनरन्तवर्णन में कश्यपीय प्रजासर्ग नामक छाछठवाँ अध्याय समाप्त ॥६६॥ अध्याय ६७ कश्यप की प्रजाओं की सृष्टि - ऋषियों ने कहा - नैमिषारण्य निवासी सभी तपस्वी ऋषियो ने सूत की ये बातें सुनकर क्रमशः इन निम्नलिखित श्रेष्ठ बातों के बारे में जिज्ञासा प्रकट की। 'हे रोमहर्षण ! सात मन्वन्तरों में इन्द्र, विष्णु प्रभृति देवगण तथा महातेजस्वी आदित्य गण किस प्रकार उत्पन्न हुए, इसे विस्तारपूर्वक हमें बतलाइये । ब्रह्मवादो