पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६३९

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वायुपुराणम् श्लेष्मातकतरुण्वेते प्रायशस्तु कृतालयाः । इत्येते राक्षसाः क्रान्ता यक्षस्यापि निवोधत चकमेऽप्सरसं यक्षः पश्वस्थूलां तुस्थलीम् । तां लिप्सुश्चिन्तयानश्च नन्दनं स चचार ह वैभ्राजं सुरभि चैव तथा चैत्ररथं च यत् । दृष्टवान्नन्दने तस्मिन्नप्सरोभिः सहासतीम् नोपायं विन्दते तत्र तस्या लाभाग चिन्तयन् | दूषितः स्वेन रूपेण फर्मणा तेन दूषितः नमोद्विजन्ते भूतानि भयावृत्तस्य सर्वशः । तत्कथं नाम चार्वङ्गी प्राप्नुयामहमङ्गनाम् दृष्टोपायं ततः सोऽथ शीघ्रकारी व्यवर्तत | कृत्वा रूपं वसुरुचेर्गन्धर्वस्य तु गुह्यकः ॥ ततः सोऽप्सरसां मध्ये तां जग्राह ऋतुस्थलीम् ६१८ बुद्ध्वा वसुरुचि तं सा भावनैवाभ्यवर्तत | संवृतः स तया साधं दृश्यमानोऽप्स रोगणैः तत्र संसिद्धकरणः सद्यो जातः सुतोऽस्य वै । परिणाहोच्छ्रयैर्युक्तः सद्यो वृद्धो ज्वलन्या राजाऽहमिति नाभिहि पितरं सोऽभ्यभाषत | तवात्र जाते न भीतिः पिता तं प्रत्युवाच ह मात्राऽनुरूपो रूपेण पितुर्वीर्येण जायते । जाते स तस्मिन्हर्षेण स्वरूपं प्रत्यपद्यत ॥१३५ ॥१३६ ॥१३७ ॥१३८ ॥१३६ ।।१४० ॥१४१ ॥१४२ ॥१४३ ॥१४४ के वृक्षों पर प्रायः आश्रय करते हैं। इन राक्षस के पुत्रों की चर्चा की जा चुकी, अब यक्ष के पुत्रों को सुनिये ।१३३-१३५। यक्ष ने अपने मन मे ऋतुस्थली नामक पाँच अवयवों से स्थूल गंगों वाली अप्सरा को गने को कामना को । उसको प्राप्त करने की चिन्ता में वह नन्दनवन मे विचरण करता रहा इसके अतिरिक्त सुम्दर वैभ्राज, (?) और चैत्र रथ नामक वनों में भी वह चक्कर लगाता रहा । अन्ततः नन्दन वन में अन्यान्य अप्सराओं के साथ विहार करती हुई उस असतो को उसने देखा; किन्तु उसके प्राप्त करने का कोई उपाय चिन्तन करने पर बुद्धि में न आया । अपनी कुरूपता एवं कुकर्म से दूषित होने के कारण उसने अपने मन मे सोचा कि भयभीत होने के कारण मेरे द्वारा सभी जीव गण उद्विग्न हो जाते है तो फिर इस सुन्दर अंगो वाली को किस प्रकार मैं प्राप्त कर सकता हूँ ? तदनन्तर उसने एक उपाय विचारा और शीघ्र उसका उपयोग किया, तदनुसार उसने वसुरुचि नामक गन्धर्व का मनोहर रूप बनाकर उन अप्सराओं के बीच से उस ऋतु स्थली को जाकर पकड़ा ।१३६-१४०१ अप्सरा ने वसुरुचि को जानकर उस यक्ष के साथ पूर्ण मनोयोग एवं सद्भाव के साथ व्यवहार किया। फलतः सब अप्सराओं के समाने हो उसने ऋतुस्थली के साथ समागम किया, और उसी समय उसी स्थान पर उससे फलस्वरूप एक पुत्र उत्पन्न हुआ जो लम्बाई और चौड़ाई मे विशाल था, जन्मते हो वह शोभा से युक्त हो गया । उत्पन्न होते हो उसने अपने पिता से कहा, 'मैं राजा हूँ, मेरा नाम नाभि है", पिता ने पुत्र से कहा तुम्हारे यहाँ उत्पन्न हो जाने पर कोई डर नही है । वह यक्ष पुत्र नाभि स्वरूप में माता के समान सुन्दर और पराक्रम मे पिता के समान वीर हुमा । ऐसे पुत्र के उत्पन्न हो जाने पर वह यक्ष अपने स्वाभाविक वेश मे आ गया । १४१-१४४। प्रायः बड़े बड़े यक्ष और राक्षस