पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६४३

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६२२ वायुपुराणम् ॥१७७ ॥१७८ ॥१७६ ॥१८० ॥१८१ कापिलेया महावीर्या उदोर्जा दैत्यराक्षसाः । कम्पनेन च यक्षेण केशिन्यास्ते परे जनाः उत्पादिता बलवता उदीर्जा यक्षराक्षसाः । केशिनीदुहितुश्चैव नीलायाः क्षुद्रमानसाः आलम्बेयेन जनिता नैकाः सुरसिकेन हि | नैला इति समाख्याता दुर्जया घोरविक्रमाः चरन्ति पृथिवीं कृत्स्नां तत्र ते देवलौकिकाः | बहुत्वाच्चैव सर्गस्य तेषां वक्तुं न शक्यते तस्यास्त्वपि च नीलाया विकचा नाम राक्षसी | दुहिता स्वभावविकचा मन्दसत्त्वपराक्रमा तस्या अपि विरूपेण नैऋ तेनेह च प्रजाः । उत्पादिताः सुरा ( ? ) घोराः शृणु तांस्त्वत्नुपूर्वशः ॥१८२ दंष्ट्राकरालविकृता महाकर्णा महोदराः । हारका भीषकाश्चैव तथैव क्रामकाः परे वैनकाश्च पिशाचाच वाहकाः प्राशकाः परे । भूमिराक्षसका होते मन्दाः पुरुषविक्रमाः चरन्त्यदृष्टपूर्वाश्च नानाकारा हानेकशः । उत्कृष्टवलसस्था ये ते च वै खेचराः स्मृताः लक्षमात्रेण चाऽऽकाशं स्वल्पाः स्वल्पं चरन्ति वै । एतैर्व्याप्तसिमं लोकं शतशोऽथ सहस्रशः भूमिराक्षसकैः सर्वैरनेकैः क्षुद्रराक्षसैः । नानाप्रकारैराक्रान्ता नानादेशाः समन्ततः ॥१८३ ॥१८४ ॥१८५ ॥१८६ ॥१८७ नामक दैत्यों एवं राक्षसों को उत्पन्न किया, जो अपने पराक्रम से सचमुच महान् थे । बलवान् कम्पन नामक यक्ष के द्वारा केशिनी के गर्भ से दूसरे महाबलवान यक्षों और राक्षसों की उत्पत्ति हुई, जो महान् थे । केशिनी को कन्या नीला के सयोग से आलम्वेय गण के सुरसिक नामक राक्षस के द्वारा अनेक क्षुद्र चित्तवाले राक्षसों का जन्म हुआ, , जो नैल नाम से विख्यात हुये | ये नैल नामक राक्षसगण दुर्जेय और घोर पराक्रमी थे |१७५-१७६। दैविक एवं लौकिक-~- दोनों प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न वे राक्षसगण सम्पूर्ण पृथ्वी-मण्डल का भ्रमण करते थे। उनके वंश मे उत्पन्न होनेवाली प्रजाओं का विस्तार बहुत अधिक है, अतः कहा नहीं जा सकता |१८०१ उस नोला की भी एक पुत्री थी, जिसका नाम विकचा राक्षसी था, स्वभाव से वह परम क्रूर और मध्यम पराक्रमवाली थी । उस विकचा के भी कुरूप निर्ऋत द्वारा अतिघोर स्वभाववाले सुरों (असुरों) की उत्पत्ति हुई, उनका क्रमानुसार वर्णन सुनिये । वे घोर असुरगण विकराल दाढ़ोवाले, कुरूप, लम्बे कानोंवाले, तथा विशाल पेटवाले थे, उनके नाम हारक, भोषक, क्रामक, वैनक, पिशाच, वाहक और प्राकशक थे- ये सब भूमिराक्षस थे, मन्द स्वभाव वाले इन राक्षसों का पराक्रम पुरुषों के समान था । ये विविध प्रकार के स्वरूप धारण कर इतने विकराल दिखलाई पड़ते है जितने भोषण स्वरूप को कोई नही देख सका था । इन भूमि राक्षसो मे जो अधिक बलवान् एवं पराक्रमो होते है वे आकाशगामी कहे जाते है ।१८१-१८५७ ये क्षुद्र राक्षसगण देखने में अति लघुकाय होने पर भी थोड़ी दूर तक आकाश प्रदेश मे विचरण करते है | ये सैकड़ों, सहस्रों की संख्या मे इस लोक को छेंके हुये है । इन सब विविध प्रकार के भूमिराक्षसों और अन्याय क्षुद्र राक्षसों से मिलकर चारो ओर से प्राय: सभी देशो